कुछ गड़बड़ है
हममें से कुछ अभी शायद क्रिकेट मैच देखकर सोने की चेष्टा
कर रहे होंगे और कुछ अपनी दिनचर्या समेटने में व्यस्त होंगे लेकिन क्या हम खुद की
भूख मिटा पा रहे हैं। हम रोज इतनी मेहनत करते हैं और हर रोज कुछ नया करने की चाहत
ने हमें इतना अंधा बना दिया है कि हम आज को भूल जाते हैं। हम स्वयं को भूलते जा
रहे हैं। हम स्वयं से दूर होकर ऐसी चीजों के पीछे दौड़ रहे हैं जो नश्वर है। हम
खुद इतने व्यस्त हो गए हैं कि इतना भी नहीं तय कर पा रहे हैं कि हमारी जरूरतें
कितनी हैं और हम इनमें से कितना पूरा कर पा रहे हैं लेकिन हर रोज की चाहत में इतना
कुछ हासिल कर जाते हैं जो शायद इतना होता है कि हम उन्हें सहेज नहीं पाते और ये
चीजें कुछ समय बाद ऐसी हालत में होती है जब हमें तय करना पड़ता है कि कौन सी चीजें
हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है और इसमें से भी हम अधिकतर गलत विकल्प चुनते हैं।
विकल्प उतने महत्वपूर्ण नहीं है, जितने इंसान
हैं लेकिन हम इंसानों के ऊपर उन विकल्पों को तवज्जो दे जाते हैं जो हमारे लिए
अल्पकालीन होती है लेकिन हम क्यों ऐसा कर जाते हैं?
हम कई बार द्वंद्व में रहकर निर्णय लेते हैं और आगे कुआँ, पीछे खाई के चक्कर में फँसकर रह जाते हैं। हम शायद समस्या का समाधान तो
चाहते हैं लेकिन जब हमारे हिसाब से उनका समाधान नहीं होता है, तब हम समस्या को समस्या ही रहने देना चाहते हैं और इसके कई उदाहरण मौजूद
भी हैं।
हम ऐसा क्यों करते हैं, इसका जवाब भी ताउम्र
नहीं मिल पाता है और हम इस प्रकार पूरे प्रसंग में नाखुश रह जाते हैं। हमारे तरफ
से यही गड़बड़ी हो जाती है और हम इस प्रकार नाजवाब हो जाते हैं।
अगर आपके पास भी ऐसा कोई सवाल हो और आप उसका जवाब चाहते हैं,
तो पहले ठहरिए और सोचिए कि आपने उक्त घटना से जुड़े सभी पहलुओं पर
ध्यान दिया भी कि नहीं। आप हर उस चीज के बारे में सोचिए जो आपको इस मामले में
प्रभावित करते हो और आपकी उत्पादकता पर किस कदर कुप्रभाव डालते हैं।
और आपको आपका जवाब मिल जाएगा।
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आज मैं फिर से अपने एक अनोखे व जादुई सफर पर निकल पड़ा हूँ और यह सफर भी थोड़ी अतरंगी है और यह मेरी रेलसफर है । मैं बेलुड़ गुरुवार को आया और आगामी बुधवार को सुबह साढ़े नौ बजे फोन आया कि मुझे तुरंत घर पहुँचना है। इसका कारण पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ी क्योंकि पापा दस बार बात करने का असफल प्रयास (छुटी पुकार) कर चुके थे और माँ व बिपुल का भी इसी बीच बारी आ रही था। सुबह आखिरी वक्त में उठने पर मुझे बोला गया कि माँ की तबीयत खराब है और माँ मुझे खुद भी बोली कि उनको अच्छा नहीं लग रहा है। मैं हैरान था और थोड़ा परेशान भी था लेकिन सुबही आदत से मजबूर होने के कारण कुछ नहीं बोल पाया और तुरंत जाल से रेलसमय आदि की जानकारी लेकर माँ को वापस फोनकर बोल दिए कि मैं ढाई बजे तक आसन में रहूँगा और अगले दस मिनट में तरोताजा होकर निकल पड़ा। मुझे उस वक्त अपने पर गुस्सा आ रहा था कि पहले उन्होंने मुझे बेमर्जी यहाँ आने को बोल दिया और अब खुद ही माँ फोन करके बुला रही है लेकिन माँ की आवाज मुझे अधिक सोचने से रोक रही थी। मैं माँ या दोनों बाबू के लिए कुछ भी करने को तैयार था, बस वे खुश रह...
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