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शब्दहीन

आपमें से कितने हमारी भाषाओं से सुपरिचित हैं और कितने अभी भी कतार में हैं। आपने कभी ध्यान भी दिया है कि हमारी भाषाओं को शब्दहीनता की बीमारी हो गयी है। हमारी भाषाएँ, खासकर हिंदी को यह बीमारी ज्यादा घर लिया है और अब तो इसके निशान समाचार चैनल व अखबार से लेकर अंतर्जाल व हमारे दिल-ओ-दिमाग तक फैल गए हैं।


हमारी भाषाओं को यह बीमारी किसी ने उधार में दिया है जिसे इसके कर्ताधर्ता जानबूझकर पाले बैठे हुए हैं और ये लोग शायद इस विषाणु को त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं। हमारी भाषाओं के कर्ताधर्ता यह कब समझेंगे कि आधुनिक युग की हमारी भाषाओं के तारणहार वास्तविकतः यही हैं। इनके आलेख दुनिया के किसी भी हिस्से में सिर्फ एक टक (अंग्रेजी: क्लिक) से मिल जाती है और हमारी भाषाओं के रचनाकार आज भी किसी दान, याचना, इनाम, पुरस्कार आदि के मोहताज हैं।

हमारी भाषाओं में वैसे भी शब्दों की कोई कमी नहीं है और हमारी भाषाएँ दुनियावी भाषाओं से अधिक समृद्ध है और हमारा विशाल इतिहास तो इससे पटा भरा है लेकिन इसके कर्ताधर्ता इस खजाने के दरवाजे पर कुंडी लगाए बैठे हैं। मैं यहाँ किसी पर भी इल्जाम लगाना नहीं चाहता हूँ लेकिन एक बात बताइए कि अंतर्जाल पर मौजूद हमारी सभी भारतीय सजालें हमारी भाषाओं के प्रति कितनी वफादार हैं।

जवाब अधिकतर नहीं में ही होगा लेकिन इनका निराकरण जरूरी है क्योंकि इससे एक पक्ष के तथ्य को बल मिल रहा है कि हमारी भाषाओं में शब्दों की भारी कमी है। जब आप किसी प्रतिष्ठित हिंदी सजाल पर पढ़ते हैं कि हिंदी में विज्ञानी शब्दों की भारी कमी है, तब आप कैसा महसूस करते हैं। जब आप विज्ञान प्रगति (विकिकड़ी) के पिछले पाँच सालों के अंक पढ़ेंगे तो भाषाई अंधेरापन साफ-साफ दिखने लगते हैं। मैंने जब आखिरी बार इसका अंक पढ़ा था तब इसमें त्रुटियाँ कम थी और कुछ हद तक अहटाज्य थी लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव तो होना ही चाहिए था लेकिन इसमें त्रुटियों की भरमार (अधिकता) हो गयी और ऐसी जिसे पलभर में हटाया जा सकता है।

जब मैं टीवी पर राजनीतिक दलों, जैसे बीजेपी, जेडीयू, आरएलडी आदि पढ़ता हूँ और इन्हीं तीन चिरकुटों के लिए अखबार में भाजपा, जदयू, रालद पढ़ता हूँ तो अजीब संवेदनाएँ बाहर आने लगती है कि इनलोगों को क्या होने लगा है। काँग्रेस और कांग्रेस में कोई असमानता नहीं हैं। पहले तो इनकी व्यथा रहती है कि हिंदी में आवश्यक शब्दों की भारी कमी है और जिनके उपलब्ध भी हैं, उन्हें भी अनाथ बनने को मजबूर कर दिया है।

इसके साथ ही हमारी भाषाओं की संक्षिप्ति में भी भारी दुरुपयोग हो रहा है। अगर हिंदी में यूनिवर्सिटी को विश्वविद्यालय कहते हैं तौ इसका संक्षेप विवि प्रयुक्त होना चाहिए लेकिन ये हुक्मरान यूनि. या पूरा विश्वविद्यालय लिख देते हैं और दिक्कत यहाँ हो जाती है। हमारे लोग समय के साथ चलनेवाले हैं और इसी कारण हमारी भाषाओं में कई भाषाई त्रुटियाँ भी आ गयी है जो अंग्रेजीप्रदत्त है। 

ये हुक्मरान भी इस तंत्र का बेधड़क इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि इनको पता है कि लोग इनसे कभी उल्टा सवाल नहीं पूछेंगे। ये समय के साथ अधिक आसानी से अपने कार्यावली (अंग्रेजी: अजेंडा) को निभा सकते हैं लेकिन उनका यह स्वप्न कभी पूरा होनेवाला नहीं है।

इनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनके पास अंग्रेजी आँकड़ी (अंग्रेजी: डाटाबेस) पूर्वसुनियोजित उपलब्ध है लेकिन हमारी भाषाओं की आँकड़ियाँ इनके कर्मचारियों के बदलने के साथ ही बदलने लगती है। आप ही सोचिए कि फिल्म डायरेक्टर को हिंदी में फिल्म निर्देशक बोलते हैं और डायरेक्टर जनरल को महानिदेशक बोलते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि हिंदी में अंग्रेजी डायरेक्टर के दो पर्याय हैं- निर्देशक व निदेशक और हमारे भाषाई हुक्मरान इस पहेली में डूबे रहते हैं और शायद इस तरह की विषैली मानसिकता रखने पर कभी भी सुलझा नहीं पाएँगे।

मैं आपको एक उर्दू चैनल का उदाहरण देना चाहता हूँ। मैं उर्दू पढ़ना नहीं जानता हूँ और इसकी लिपि से पूर्णतः अपरिचित हूँ लेकिन कभी-कभी चैनल इस ओर भी घुमा देता हूँ। उस समय उस चैनल पर किसी कॉलेज^ से जुड़ा मामला प्रसाररत था और उसपर हिंदी के शब्द भी दिखाए (निम्नभाग) गए थे और डायरेक्टर (अंग्रेजी: डायरेक्टर) के हिंदी पर्याय में डायरेक्टर ही दिखाया गया। हिंदी और उर्दू में लिपि के अलावा सबकुछ एक ही है लेकिन एक चीज मेरे दिमाग में स्थापनरत थी कि हमारी भाषाओं की सबसे बड़ी कमी एक सुव्यवस्थित आँकड़ी का अनुपलब्ध होना ही है लेकिन यह ऐसा कर्म है जिसे एक दिन या एक साल में पूरा नहीं किया जा सकता है। इसमें एकग्रता के साथ एकाधिक लोग भी चाहिए जो फिलहाल मेरे पास नहीं है।

मैं इसके साथ एक चीज जोड़ूँगा कि हमारी सभी भारतीय भाषाएँ (द्रविड़ लिपि के तेलगु, तमिल, मलयालम आदि सहित) सभी हमारी भाषाएँ हैं और मेरे अनुसार इनमें कोई भेद भी नहीं है लेकिन ये हुक्मरान हमारी भाषाओं के बीच आठमार्गीय (अंग्रेजी: आठ लेन हाईवे) राजमार्ग बनाने पर उतारू हैं। अगर कोई हिंदी चैनल या अख़बार में हमारी अन्य भाषाओं के शब्द दिखाते हैं, तो उनका स्वागत होना चाहिए क्योंकि हमारी भाषाओं में बाईस लाख से भी अधिक शब्द हैं। मैं जानता हूँ कि हम सभी इतने शब्द नहीं सीख या जान पाएँगे लेकिन थोड़ी कदम आप चलेंगे, थोड़ी हमारी भाषाएँ और कारवाँ इसी तरह बनता रहेगा और मैं भाषाई विरोध के बिल्कुल खिलाफ हूँ।

एक चीज जो अंतिम सत्य है कि इन चैनलों, मध्यमाओं, सजालों! को कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारी भाषाओं में कितने नए शब्द प्रतिवर्ष आ रहे हैं। इससे भी बड़ी समस्या हिंदी मानकीकरण की है जिसके कारण यह समस्याएँ अधिक जटिल हो रही हैं। आपको पता है कि प्रसंस्कृत व प्रसंस्करित दोनों ही वर्तमान में अंतर्जाल पर प्रयुक्त हैं और मैं प्रथम का प्रयोग करने का पक्षधर हूँ क्योंकि यह अधिक शुद्धरूप हैं। आपको इनसान, इंसान, इन्सान आदि अन्य भी मिल जाएँगे।

हमें इसके साथ यह भी समझना होगा कि जितेंद्र व जीतेंद्र अलग हैं और दोनों के अर्थ अलग हो सकते हैं। इसके साथ ही अगर ये दोनों किसी शख्स के नाम हैं, तो इन दोनों शब्द में स्पष्ट पृथकता है।

हमें समझना होगा कि हिंदी ही एकमात्र भाषा है जो पूरे देश को एक धागे में पिरोने की शक्ति रखती है और यह बात सुस्पष्ट भी हो रही है लेकिन कुछ तथाकथित सत्ताधीश इस बात को मानने से इन्कार कर रहे हैं क्योंकि इनकी कमाई लोगों को भाषाई तौर पर लड़ाकर ही होती है और पिछले सत्तर सालों के घटनाक्रम ने इन्हें किसी भाषाविशेष का बाप बना दिया है और इनलोगों ने भी हमारी भाषाओं को अपनी बपौती संपत्ति समझ लिया है।


हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए या नहीं, यह बाद में संविधानप्रदत्त निर्धारित होगा लेकिन अभी के लिए हमें कुछ भाषामित्र चाहिए जो हमारी भाषाओं को मित्रत्व के बेड़ियों से जकड़कर रख सकें। मैं मानता हूँ कि यह अहिंसात्मक होगा लेकिन इन सत्ताधीशों की गद्दी हिलने पर थोड़ी कष्ट तो होगी ही और पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन, भोपाल के जिक्र से समझ सकते हैं कि मेरा इशारा किस ओर है।

एक बात जो आपको जानना चाहिए कि सर्जिकल स्ट्राइक हमारे देश के लिए पहली सीमापार युद्ध (एकतरफा) थी क्योंकि अगर यह पाँच-दस साल या पचास साल पूर्व होती, तो इसे इसके हिंदी शब्द मिल ही जाते और आप कश्मीर के अलगाववादियों को भी सेपारेटिस्ट ही बोल रहे होते अगर यह समस्या पिछले कुछ सालों में पैदा हुयी होती लेकिन हम शुक्रगुजार हैं कि हमारी सरकारों ने इन्हें पाला-पोसा और आजतक ये अलगाववादी ही हैं वर्ना हिंदी में तो ये सेपारेटिस्ट कब का बन ही जाते।
आखिर में इतना कहूँगा कि हमारी भाषाएँ हमारी पाँच हजार सालों के परिश्रम का फल है जिसे हम कुछ निहित स्वार्थपूर्ति के लिए जाया होने नहीं दे सकते हैं।

अगर आपको यह आलेख पसंद आया और आप हमारी भाषाई मदद करना चाहते हैं, तो अपने विषय के साथ उसका वर्णन हमारे संपर्क प्रपत्र में जरूर करें।

हमारा ध्येय है कि हम अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल अवश्य होंगे और सबसे बड़ी बात कि मैं राजनेता नहीं हूँ जो वादे कर वादाखिलाफी कर जाऊँ। मुझे विश्वास है कि हम अवश्य सफल होंगे।
यहाँ मानक हिंदी के संहितानुसार कुछ त्रुटियाँ हैं, जिन्हें सुधारने का काम प्रगति पर है। आपसे सकारात्मक सहयोग अपेक्षित है। अगर आप यहाँ किसी असुविधा से दो-चार होते हैं और उसकी सूचना हमें देना चाहते हैं, तो कृपया संपर्क प्रपत्र के जरिये अपनी व्यथा जाहिर कीजिये। हम यथाशीघ्र आपकी पृच्छा का उचित जवाब देने की चेष्टा करेंगे।

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