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बेलुड़ शुभागमन

बेलुड़ आए चार दिन हो गए हैं लेकिन मेरा अकेलापन यहाँ भी जारी है। इसकी योजना भी केवल एक दिन पहले बनी और अगले ही दिन यहाँ पहुँच गया।


यह आलेख मेरे लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह मेरी एक किताब की शक्ल ले सकता हैयदि मैं इसका सही प्रारूपण करने में सफल हो जाऊँगा। मेरी इच्छा एक किताब लिखने की है जो मेरी कहानी बताने के साथ-साथ बेलुड़ और कोलकाता की खुबियों को संजोए रखेगा।

बात शुरु करूँगा मेरे यहाँ आने की कहानी से लेकर हर उस शख्स कीजिसके कारण मैं अभी यहाँ हूँ और अभी फिलहाल अकेलापन महसूस नहीं कर पा रहा हूँ लेकिन मेरे अकेलेपन का इकलौता साथी भी मैं ही हूँ।

कहाँ से शुरु करूँविषय तो बहुत हैं जिनके बारे में लिखकर इसे लंबा-चौड़ा बना दूँगा लेकिन इसका पठन प्रभाव भी कम हो जाएगा।

इसलिए शुरु करता हूँ पिछले साल जुलाई से, क्योंकि वही महीना था जब मैं दुर्गापुर से घर आया था। मैं खुश भी था और नाखुश भी था, दरअसल यह ऐसी पहेली है जिसे बुझाना मेरे लिए कभी सरल नहीं रहा। मैं अपने दोस्तों की याद में दुखी रहता था और बारहवीं के समय को याद करता था कि किस तरह मेरे दोस्त उस समय भी बिछड़ गए थे लेकिन मैं तब खुश भी रहता था क्योंकि मैं उस समय अपने परिवार के साथ था।
मैं परिवार में अटूट विश्वास रखता हूँ और इसकी वजह मेरी असुरक्षा नहीं है। मैं अपने माँ-पापा व भाइयों के साथ रहना चाहता हूँ।
हाँ, असुरक्षा एक कारक जरूर है लेकिन इसके अन्य कारण भी हैं जो मुझे एक होने का अहसास दिलाते हैं। परिवार एक ऐसा शब्द है जो आपको अहसास दिलाता है कि आप अकेले नहीं हो। परिवार आपको किसी चीज की कमी का अहसास होने नहीं देता है। हाँ, कई दफा ऐसे मौके भी आते हैं जब हमारे अरमान धराशायी हो जाते हैं लेकिन उस समय भी परिवार एकजुट रहकर यह साबित कर देता है कि यह पलभर का झोंका है और कुछ देर बाद स्वतः समाप्त हो जाएगा।

मैं अपने परिवार के साथ रहना चाहता हूँ लेकिन मेरे माँ-पापा चाहते हैं कि मैं कोई नौकरी करूँ। मैं वैसे ही जुलाई से अबतक काफी छुट्टियाँ बिता चुका हूँ और पापा मुझे हमेशा बोलते थे कि आगे क्या करना है, तो मैं बोलता कि गेट परीक्षा देने के बाद तय करूँगा। गेट परीक्षा ५ फरवरी को तय थी और तबतक के लिए मुझे उनकी बातों पर गौर नहीं करना था लेकिन जैसे ही पाँच फरवरी गुजरा, पापा फिर मुझे वही पुरानी बात बोलने लगे।

मैं खिन्न हो गया था लेकिन मैं अब पहले से ज्यादा आश्वस्त था क्योंकि मेरा संकल्पनाकोष अब ऐसे मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ से आगे की राह अब ज्यादा सशक्त व स्पष्ट है। मैं अगले कुछ दिनों में गूगल को डाक से एक अनुरोध पत्र भेजनेवाला हूँ जिसमें हर उस बात का जिक्र होगा जो मेरे परियोजना को धरातल पर उतारने में सिद्धहस्त होगा। इसके साथ हिंदी मानकीकरण के साथ ही भारतीय भाषाओं के भारतीयकरण की राह भी खुल जाएगी। मैं मानता हूँ कि गूगल के पास मुझसे अच्छे बंदे व जानकार हो सकते हैं लेकिन मेरे जैसे वहाँ कोई नहीं होगा जो मेरी तरह चौदह+ भाषाओं (देवनागरी के सभी, मलयालम, कन्नड़, तेलगु आदि) में टंकण करने में समर्थ होगा और इसके साथ ही इतने भाषाओं के आलेख पढ़ने के कारण इनके सभी शब्दों से मेरा परिचय भी सुगमरत है और इन्हें आँकड़ी में तरजीही भी मिल रही है। खैर, यह तो गूगल को निर्णय करना है कि वह मुझे अपने खेमे में चाहता है या नहीं।
मैं अब वापस अपने दर्द पर आता हूँ। मैं उस समय गमगीन था। मुझे पता नहीं कि मेरे दोस्त मेरे बारे में क्या सोचते हैं और मैं शायद जानना भी नहीं चाहूँगा क्योंकि मैंने हमेशा खुद को तरजीह दिया है। मैं सबसे आगे नहीं रहना चाहता हूँ बल्कि सबके साथ रहना चाहता हूँ। मैंने पिछले साल ज्ञानज्योतिब्लॉग आरंभ किया था जिसमें पहले डेढ़ महीने आलेख (पूर्णतः आलेख नहीं थे, बल्कि वे सभी पत्रियाँ थी जो कुछ हद तक निजी भी थे) प्रकाशित हुए और फिर बंद हो गए। मैं इसके प्रारूप से खुश नहीं था और कुछ अलग विकल्प आजमाना चाह रहा था और उसी समय मेरे दिमाग में कुमारवाणी का ख्याल आया जो मेरे नाम से मिलता-जुलता था और यह मेरे अभिव्यक्ति को पूर्णतः दर्शाती भी है।
पिछले अक्तूबर का ख्याल मन में तो था लेकिन पैसे खर्च न करने की बाध्यता ने मेरे हाथ तंग रखे थे और फिर मुझे उप-अनुक्षेत्र (उप-डोमेन) का चयन करने का ख्याल आया। मैं वर्डप्रेस से परिचित था और वो मुझे उस समय उसके उप-अनुक्षेत्र पता (----.wordpress.com) से नाखुश था। मैं जब भी यह वर्डप्रेस (अंग्रेजी में) देखता, तो मुझे इससे चिढ़ होने लगती और कुछ दिनों बाद मुझे ज्ञानज्योति का प्रकाशन छोड़ना पड़ा।

लेकिन इस तीन जनवरी को मैंने कुमारवाणी ब्लॉगस्पॉट पर आरंभ किया और यह निर्णय भी २६-२७ दिसंबर की रात का था जब मैं इसके क्रियान्वन से जुड़े मसले सुलझा रहा था और काम हो गया। मैंने अब कुमारवाणी पर अपनी सामग्री प्रकाशित करना शुरु कर दिया था। 

मैं अब अधिक खुश था क्योंकि अब मैं अपना काम अधिक साफगोई से दुनिया के सामने ला सकता था। मैंने तो इसका अनुक्षेत्र भी (गूगल से, ₹४५०/वर्ष) खरीदने का मन बना लिया था लेकिन पहले गेट परीक्षा के शुभागमन ने और फिर पापा के कारण मुझे कुमारवाणी पर काम करने का समय नहीं मिल पाया। मैं यद्यपि आलेख पर कार्यरत था और अभी भी मेरे पास ५०+ आलेख प्रकाशाधीन हैं लेकिन मेरे साथ हर बार होनेवाली आखिरी मिनट संपादन ने मेरा हाल बेहाल कर रखा है और इस कारण मेरे कई आलेख अचयनित हो चुके हैं और कई क्रमवार भी हैं।
मैं अभी भी इस क्षेत्र में नया हूँ और मुझे यहाँ काफी कुछ सीखना है, ताकि मैं बहुत अच्छे आलेख लिख सकूँ।
मैं कुमारवाणी को आगे बढ़ाकर हिंदी में तकनीकी सामग्रियाँ पेश करना चाहता हूँ और मेरी पेशकश भारतीय भाषाओं को जितना सबल बनाएगी, उससे अधिक अंतर्जाल पर भारतीय भाषिक सामग्रियों की उपलब्धता बढ़ेगी। मुझे इसमें हाथों की जरूरत है और मैंने इसकी एक प्रस्तुति बनाकर अपने सभी दोस्तों को साझा किया और स्लाइडशेर पर भी उद्भारित कर उसे कुमारवाणी के बारेमा पृष्ठ से संलग्न कर दिया। यह काम भी एक सप्ताह पूर्व ही घर में किए थे।
मैं कुमारवाणी की महत्वकांक्षा से भली-भाँति परिचित हूँ और इस कारण यहाँ आने को सुनिश्चित करने में इसने महती भूमिका अदा किया। कुमारवाणी के साथ क्यों और तकिंदी (तकहिंदी) पर भी कार्यरत हूँ और मुझे आशा है कि यहाँ अगले महीने तक यानि १७ मार्च तक इनमें आमूलचूल परिवर्तन आ जाएगा जो पूर्णतः मनमुताबिक होगा। क्यों में ऐसे सवालों पर विचार-विमर्श होगा जिनसे हम गाहे-बगाहे चौक-चौराहे पर, तो कभी घर के किसी कोने में मिल ही जाते हैं। तकिंदी में तकनीकी सामग्रियों की बहुलता होगी और यहाँ की सामग्रियाँ सैद्धांतिक होगी जो ऋणकणिकी से लेकर यांत्रिकी तक के विषयों को समेटेगी और इसकी रचना वृहत् होगी परंतु अभी इसकी रूपरेखा पर काम चल रहा है।
कुमारवाणी इन दोनों या भविष्य में आनेवाली मेरी किसी भी सजाल के बीच पुल का काम करेगा और मुझे इसका व्यापारचिह्न (ट्रेडमार्क) भी लेना होगा लेकिन अभी इसकी तिथि निश्चित नहीं है। मेरी कंपनी का नाम कुमारवाणी मध्यमाकर्म होगा। कुमारवाणी मेरे नाम के जितना करीब है, उससे ज्यादा यह मेरी मेहनत, लगन व प्रतिष्ठा को चिह्नित करता है। यह मेरे उन दस सालों का भी प्रतिबिंब है जब से मैं यह सोचने पर उद्वेलित हो उठा कि हिंदी में इन विभिन्न त्रुटियों का इलाज कब और कौन करेगा और मुझे आशा है कि कुमारवाणी मेरी आकांक्षाओं पर खरा उतरेगी और मैं इस परियोजना से हमेशा की तरह खुश हो पाऊँगा।
इसके साथ ही कुमारवाणी के औद्योगिक प्रयोग को भी बढ़ावा दिए जाने का प्रयास होगा और इसकी शुरुआत विज्ञान प्रगति से होगी जो २०१० से मेरा सर्वश्रेष्ठ इकलौती (बिल्कुल नहीं, लेकिन विज्ञान व तकनीकी संबंधित इकलौती) पत्रिका है और यहाँ आने से पहले नीलेश से इसका फरवरी अंक खरीदा। मैं खरीदने से नहीं बच सका क्योंकि इसके प्रति मेरी अपार श्रद्धा है लेकिन दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अब यह भी बदल चुकी है और इसमें भी त्रुटियों ने अपना जाल बना लिया है, पर मुझे आशा है कि इसमें कमी जरूर आएगी।
मेरे विषय में वैसे बहुत बात हो गयी और अब मैं अपनी बेलुड़ आने की रेलयात्रा का चित्रण करूँगा क्योंकि इसने मुझे खुशी के साथ गम का ऐसा पोटला दिया जिसे संभालना इतना आसान नहीं है। मैं जहाँ रह रहा हूँ, वह जगह बेलु़ड़ रेलवे स्टेशन से केवल पाँच मिनट की दूर पर है और इस वजह से रेलध्वनि सतत आती रहती है और अभी भी आ रही है। सुबह उठते ही जब रेल देखते हैं, तो अफसोस होने लगता है कि यह एक्सप्रेस रेल मेरे घर तक अवश्य जाती होगी लेकिन मैं अब इसमें नहीं चढ़ पाऊँगा क्योंकि तिथि अभी कोसों दूर है।
लेकिन अफसोस ही केवल नहीं है मेरे साथ, मेरे पास यहाँ कुछ दोस्त हैं जिनसे अगले कुछ दिनों में मिलूँगा।
बराकर से आसनसोल (छः सं• प्लेटफार्म) तक गया स्थानम (लोकल) से आए और फिर दौड़कर तीन सं• पहुँचें और इस दौरान बैग का संबल टूट गया और बैग संबलन में अधिक परेशानी होने लगी लेकिन किसी तरह स्थानम में चढ़कर तीसरे द्वार के खिड़की के पास अखबार बिछाकर आराम से बैठ गए। रेल १२५६ में खुलकर १५०४ में बर्दवान (बंगला: बर्द्धमान) पहुँची और यहाँ भी मुसीबतें अपार थी। छोटी सी सीढ़ी में अनगिनत लोग एक ही रेल लेने हेतु चढ़ रहे थे और मेरा बैग अधिक भारी था, पर मुझे किसी तरह स्थानम में द्वार के पास बैग (दोनों) रखकर वहाँ खड़े रहने की जगह मिल गयी। वह १५१८ में खुलकर बेलुड़ १७३४ में पहुँची। बीच के दृश्य मनमोहक थे लेकिन छवियाँ नहीं ले सका। कोन्नगर पहुँचकर दोस्त का ख्याल आया और बाकियों का भी याद आया जो यहाँ के विभिन्न इलाकों में रहते हैं।
मुझे अगले सप्ताह तक यहाँ सभी दोस्तों से मिल लेना है और इसके लिए मेरे पैर और स्थानम ही जरूरी हैं लेकिन उनका उपलब्ध होना भी जरूरी है। प्रकाश से परसों ही मिला और हम धर्मतला घूमने भी गए। मुझे प्राची, रवि, अरूप से मिलना है और उनसे मिल ही लूँगा। इससे पहले मुझे उनसे मिलने के जगह के बारे में भी जानना होगा क्योंकि इसके बगैर मैं खो नहीं जाऊँगा और मेरे पास अभी जियो बाबा हैं जो केवल बैटरी माँगते हैं और बाकी काम खुद ही करते हैं। यहाँ भी उन्हीं का सहारा है और अंतर्जाल व कॉल (पुकार) हेतु इनका ही एकमात्र सहयोग है। मेरे मुख्य संख्या में अभी मात्र ५ (बैलेंस) है लेकिन इसकी जरूरत भी आपात में ही होगी जब जियो असफल होगी लेकिन इसका भी कोई सटीक अनुमान नहीं है।
यहाँ आकर मुझे कमरा संख्या ४०१ का बिस्तर संख्या २ मिला। इसे कमरा कहना गलत ही होगा क्योंकि यह दो बीएचके (बी: शयनकक्ष, एच: बरामदा, के: रसोई) घर है लेकिन मैं इसे कमरा ही कहूँगा क्योंकि यहाँ मेरे से भी अजीब लोग हैं और दो बंदे सामने के कमरे में बंद रहते हैं क्योंकि उन्हें मुझसे या मेरे संगीत से कोई लेना-देना नहीं है। मुझे उन्हें अपशब्द बोलने का मन कर रहा है लेकिन नहीं बोलूँगा क्योंकि पहली बात कि मैं उन्हें जानता ही नहीं हूँ और दूसरी बात कि मैं अपनेलोगों को ही गरियाता हूँ। बाकी लोग ठीक-ठाक हैं। मैं नया हूँ और मुझसे घुलने-मिलने में इन्हें जरूरी समय भी चाहिए। बाकियों से अच्छी जान-पहचान हो गयी है और खाली समय में हम गप्पे भी लड़ाते हैं।
इसके साथ ही दैनिकवार कर्मतालिका (दैनंदिनी) पर भी काम करना होगा जिसमें कुमारवाणी व सहयोगियों पर किए कामों की संपूर्ण विवेचना होगी। इसमें बेलुड़ से जुड़े सभी चौक-चौराहों का ब्यौरा भी लिखना है, ताकि ये मार्ग मुझे जल्दी याद हो जाए।
इसके साथ ही मुझे समीर दा (प्रबंधक) व कमरे के अन्य सदस्यों से भी घनिष्ठता बढ़ाना होगा क्योंकि इनके जरिए मैं बेलुड़ के उन अनाम गलियों तक पहुँच सकूँगा। मुझे बेलुड़ मठ भ्रमण पर भी जाना है और वहाँ अध्यात्म का स्वाद चखना है।
कल से मुझे कोलकाता के कंपनियों में प्रबंधन संबंधित सभी नौकरियों की खोज में जाना है और आशा है कि मुझे मिल भी जाएगा। मैंने इसके लिए एक प्रस्तुति तैयार कर लिया है जो मैं उनके कर्मचारियों को दिखा सकूँगा। इसके लिए मैंने कंपनियों की सूची भी बनाया है जहाँ मुझे जाना है। इसके अलावा उन कंपनियों को मेरी प्रस्तुति ऑनलाइन उनके सजालों के जरिए या उनके किसी प्रतिनिधि के जरिए भेजे जाएँगे। मैंने कुछ शीर्ष कंपनियों का तालिका तैयार किया है जहाँ मैं खुद जाकर अपनी प्रस्तुति सीडी जमा कर आऊँगा।
आखिर में इतना कहना चाहूँगा कि यह जगह भले ही मेरे लिए नयी हो और यह मुझे अभी भी नहीं पहचानती हो लेकिन मैं इसके रूह से भली-भाँति परिचित हूँ। मैं इसके रूप-रंग को पहचानता हूँ और यह मेरे लिए बिल्कुल नयी नहीं है। 
मैं बेलुड़ को अपना दूसरा घर बनाना चाहता हूँ और मैं इसके लिए प्रतिबद्ध भी हूँ। मुझे नौकरी मिलने के बाद भी मेरा प्रयास रहेगा कि मैं यहीं रहकर कार्यालयी काम पूरा करूँ लेकिन यह अभी भविष्य के गर्भ में है।

छवि साभार: इंडियन एक्सप्रेस

विशेष: यह एक व्यक्तिगत विचार है जिसे मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। बेलुड़ से जुड़े कई और आलेख आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

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