अतरंगी सफर का साथ
आज मैं फिर से अपने एक अनोखे व जादुई सफर पर निकल पड़ा हूँ और यह सफर भी थोड़ी अतरंगी है और यह मेरी रेलसफर है।
मैं बेलुड़ गुरुवार को आया और आगामी बुधवार को
सुबह साढ़े नौ बजे फोन आया कि मुझे तुरंत घर पहुँचना है। इसका कारण पूछने की जरूरत
भी नहीं पड़ी क्योंकि पापा दस बार बात करने का असफल प्रयास (छुटी पुकार) कर चुके
थे और माँ व बिपुल का भी इसी बीच बारी आ रही
था। सुबह आखिरी वक्त में उठने पर मुझे बोला गया कि माँ की तबीयत खराब है और माँ
मुझे खुद भी बोली कि उनको अच्छा नहीं लग रहा है।
मैं हैरान था और
थोड़ा परेशान भी था लेकिन सुबही आदत से मजबूर होने के कारण कुछ नहीं बोल पाया और
तुरंत जाल से रेलसमय आदि की जानकारी लेकर माँ को वापस फोनकर बोल दिए कि मैं ढाई
बजे तक आसन में रहूँगा और अगले दस मिनट में तरोताजा होकर निकल पड़ा।
मुझे उस वक्त
अपने पर गुस्सा आ रहा था कि पहले उन्होंने मुझे बेमर्जी यहाँ आने को बोल दिया और
अब खुद ही माँ फोन करके बुला रही है लेकिन माँ की आवाज मुझे अधिक सोचने से रोक रही
थी। मैं माँ या दोनों बाबू के लिए कुछ भी करने को तैयार था, बस वे खुश रहे और स्टेशन
पहुँचकर टिकट लिया और स्थानम में चढ़ गया।
हावड़ा स्टेशन
पहुँचकर रेल का नामोनिशान ढूँढे लेकिन वह रेल तबतक यार्ड में ही थी। वह ११:१५ बजे
खुलनेवाली थी लेकिन प्लेटफार्म पर ११:०४ में आयी। रेल का नाम जनसाधारण एक्सप्रेस
था और सबसे अच्छी बात यह थी कि इसमें कोई आरक्षण नहीं थी और इस कारण इसमें भीड़ भी
कम थी। ग्यारह सोलह में रेल खुली और धीमे चलने लगी और इस दौरान मुझे नींद आने लगी
लेकिन रेल दस मिनट की देरी से गंतव्य पहुँच रही थी। आसनसोल में ढाई बजे (1434) पहुँचे
जहाँ उसका नियत समय १४११ था और इस कारण गया छुट गयी। वैसे भी गया मिलनेवाली नहीं थी
क्योंकि उसके खुलने का समय ही दो बजे था। मुझे भूख लगी थी और नाश्ता भी नहीं कर
पाए थे। फिर निर्णय हुआ कि कैंटीन में जाकर खा लेना बेहतर है क्योंकि मेरी रेल अब
बराकर हेतु पचास मिनट बाद थी।
कैंटीन पहुँचकर
देखे कि यहाँ तो इतनी भीड़ थी और लोगों की कतारें बता रही थी कि मुझे भोजन मिलने
में कम से कम चालीस मिनट लग ही जाएँगे और मैं चेहरा धोकर वापस तीन पर आ गया। अब
मेरे पास झालमुड़ी का ही विकल्प मौजूद था और मैंने झालमुड़ी खरीदा। तबतक तीन बीस
हो चुके थे और जम्मूतवी अगले कुछ मिनटों में प्लेटफार्म पर थी। मुझे साधारण बोगी
में नहीं जाना था और मैं एस१ में चढ़ गया।
वहाँ एक वाकया
हुआ जिसका जिक्र होते ही मैं हँसने लगता हूँ। वहाँ एस१ के सामने एक किन्नर थी और
मैं वहीं द्वार के पास रेल के खुलने का इंतजार करने लगा। अब हुआ यह कि अगले ही पल
में दो रेसुब अधिकारी आ गए और उनको भी उसी बोगी से जाना था। उस किन्नर ने उनलोगों को
नमस्कार कहकर मेरे तरफ देखने लगी और मैं सोचने लगा कि देखो, यह लोगों के पैसे
दबोचने जा रही है और रेसुब से याचना कर रही है। मैंने फिर सोचा कि यार, वह इस बोगी
में जा रही है, तो मुझसे भी माँगेगी लेकिन रेल खुलने से पहले वह कहीं गायब हो गयी
और रेल खुलते ही मैं भी चढ़ गया। एक रेसुबवाले ने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ जा रहा
हूँ, तो मैंने बराकर कहा। मैं थोड़ा डरा हुआ था कि कहीं दंडाधिकारी जाँच (अंग्रेजी:
मजिस्ट्रेट जाँच) तो नहीं होनेवाली है। मुझे रेल में इसी दंडाधिकारी का डर लगता है
लेकिन फिर मुझे याद आया कि दिन में शयनबोगी में सफर किया जा सकता है और वैसे भी
मैं किसी की सीट पर नहीं बैठा था।
अगले २२ मिनट
में मैं बराकर में था और अंधेरी पुल होते हुए घर पहुँच गया और फिर से वही सुबही
दृश्य पर मन खराब होने लगा। घर पहुँचकर माँ को पूछें कि कैसा लग रहा है तो
सकारात्मक जवाब मिलने पर मन संतुष्ट हुआ। माँ और बिट्टु को देखने पर मन तृप्त हो
गया और कुछ देर में खाने बैठ गया। मैंने फिर माँ से सुबह के बारे में पूछा तो
उन्होंने कहा कि रात से ही अच्छा नहीं लग रहा था और इसीलिए मुझे बुला ली। मैंने
उनको बोल दिया कि पहले उन्होंने भेजा और फिर बुला भी लिया और अंततः मुझे ही पूरी
भागदौड़ करना पड़ा।
पिछले दिन ही
फोन पर बात हुई थी जिसमें मैंने कह दिया था कि मैं होली पर घर नहीं आऊँगा ओर अगले
ही सुबह मुझे घर आना पड़ा। फिर बैडमिंटन खेलने छत पहुँचे और थोड़ी देर में बिपुल आ
गया और हम तीनों जमकर खेलें। मैंने शाम में माँ को बता दिया कि मैं परसों चला
जाऊँगा तो उन्होंने मना कर दिया। मैं भी मान गया क्योंकि मेरे पास कोई उपाय न था।
दिन गुजरते गए लेकिन मेरे आने के दिन करीब न थे क्योंकि माँ मुझे रोकना चाह रही थी
और मैं भी अंततः परिवार से दूर नहीं रहना चाहता था लेकिन हालात को यह नामंजूर था।
शनिवार को तय हुआ कि मंगलवार को मैं जा सकता हूँ क्योंकि कोई तिथि मुझे जाने से
रोक रही थी।
दिन अच्छे गुजर
रहे थे और बिपुल बोल रहा था कि मेरे बगैर उसका दिन अधूरा जाता है और वह मुझे काफी
याद करता है, तो मैंने बोला कि मैं हमेशा उसके साथ हूँ। मैं हमेशा उन चारों के साथ
हूँ और हमेशा रहूँगा। इसके साथ ही तय हुआ कि कोलफिल्ड से जाएँगे।
और मंगलवार आ
गया।
रेल में घुसते
ही उसी आदमी के मुलाकात हुई जिससे अकारण मुलाकात हो ही जाती है और वो हर बार एक ही
बयानी करता है कि पिछली (पीछे की) बोगी में चलो जाओ वर्ना उठा दिए जाओगे लेकिन
२०१० से अबतक ऐसा कोई दिन नहीं आया जब मुझे ऐसे मौके से दीदार हुआ हो। समय बीतने
के साथ चाहे आसन हो या दुपुर और फिर हावड़ा कहीं भी ऐसे तत्वों से मुलाकात
मुझे रास आने लगी और मैं आजीवन कल्पना कर बैठा हूँ कि हमेशा इसी अण्डाल बोगी में
ही बैठूँगा।
सीट तो मिल ही
चुकी थी और अब नींद की ही बारी थी क्योंकि मैं रातभर सो नहीं पाया था और मोबाइल से
बातें करने में तल्लीन था। रेल में भी थोड़ी देर मोबाइल के साथ अठखेलियाँ कर सोने
का प्रयास किए लेकिन यह प्रयत्न भी असफल रहा और तबतक वारिया पहुँच गए। वहाँ नाश्ते का
प्रबंध हो पाया और वही खाकर सो गए। मुझे उस समय खिड़की चाहिए था और मुझे एक
चाचाजी (दैनिकयात्री) बोले कि मैं पीछे की सीट पर बैठ जाऊँ और मैं चल गया।
दुपुर
आते ही खिड़की मेरी हो गयी और मैं फिर सो गया। रेल विलंबित थी क्योंकि उसके वरीय
रेलों का गमन जारी था। रेल एक घंटे देरी से पहुँची और स्टेशन पहुँचकर भी एक लफड़ा
हो गया और वह स्थानम से जुड़ी थी।
वहाँ दो स्थानम
खड़े थे और मुझे समझ नहीं आया कि किसमें चढ़ूँ तो समयसारणी देखकर तारकेश्वर में
चढ़ गया। वह दस मिनट देर हो चुकी थी। लिलुआ से पहले इसे रोककर पांडुआ को आगे बढ़ा
दिया क्योंकि वह वरीय पटरी पर थी। मैं अगले पंद्रह मिनट में बेलुड़ पहुँचनेवाला था
और स्टेशन से मात्र पाँच मिनट पर मेरा रहवास था।
मैं साढ़े बारह
बजे तक अपने कमरे में था और भूख लगने के साथ नींद भी जोरों की लगी थी और इस बाजी
में नींद जीत गयी। मैं सो गया और सीधे शाम में ही उठ पाया। खाना खाकर फिर सोने की
कोशिश किए लेकिन डर था कि अभी सो गए तो दो बजे उठकर काम करना पड़ेगा और मैं काम
नहीं करना चाहता था और इसीलिए ध्रुवजी व पटेलजी से बात करने लगा।
बारह बजनेवाले थे
और छत पर भी नहीं जा सका और अब मुझे सो जाना था। बिस्तर पर आते ही फिल्म देखने का
मन आया और अंतर्जाल पर फिल्म ढूँढने लगा। मेरी फिल्म मिल भी गयी और वो भी तीन। एक
को उसी समय देख लिया क्योंकि उसका संवाद बेहतरीन होने के साथ किरदार भी सर्वश्रेष्ठ
थे।
रात के ०१४६ बज
चुके थे और अब नींद नहीं आ रही थी। आखिर में इतना बोला कि अब लेत्तोप चालू करना ही
होगा। लेत्तोप चालू करते ही कुमारवाणी पर एक आलेख प्रकाशित कर अगले की तैयारी करने
लगा और फिर से वही फिल्म दोबारा देख लिया। इसी बीच कई जरूरी लघुकार्य निपटाया गया।
सुबह साढ़े पाँच
बजे लेत्तोप बंदकर सो गए और यह आलेख यहीं खत्म होता है।
विशेष: मैं कल
ही बेलुड़ आया था। मैं जानता हूँ कि यह निजी आलेख है लेकिन कुमारवाणी मेरी जिंदगी
है और आप इसे मेरी जिंदगी का नामी पहलू कह सकते हैं। मैं खुद को बेहतर जानना चाहता
हूँ और इसके लिए मुझे स्वमूल्यांकन भी करना होगा जिसका एक पात्र यह भी है।