नामकरण- समीक्षा
स्टार प्लस पर इसी सप्ताह एक नया धारावाहिक
शुरु हुआ है और उसका नाम नामकरण रोचक भी है। इसी
सप्ताह शुरु हुआ और पहले दिन से ही कहानी अच्छी लगने लगी। एक प्यारी बच्ची, उसकी माँ
और उन दोनों के साथ न रहने वाला पिता- इन तीनों के समावेश ने कहानी को रोचक बना दिया
था और शेष काम इसके झलक ने कर दिया था। जब मुझे पता चला कि यह धारावाहिक महेश भट्टजी
का है तो मुझे कुछ अचरज नहीं लगा क्योंकि उनकी रचनात्मकता पर मैं सवाल उठा भी नहीं
सकता हूँ। इसकी कहानी जैसे-जैसे बढ़ रही थी, मेरी उत्सुकता भी बढ़ रही थी कि आगे क्या
होगा। भट्टजी का धारावाहिक होने के कारण मैं धार्मिक कोण को नजरअंदाज भी नहीं कर पा
रहा था लेकिन कहानी खूबसूरत होगी, इसका मुझे पूरा विश्वास था।
कहानी अपने रफ्तार पर थी और दिखाया गया
कि इस धारावाहिक की कलाकार आशा एक मुसलमान लड़की है और उसका पति आशीष एक हिंदू है और
उनकी एक प्यारी बेटी अवनि है। यहाँ तक तो आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि उनका
विवाह धर्म अलग होने के कारण पूरा न हो सका और आशीष की माँ ने इसकी अनुमति नहीं दी
और वे दोनों दुनिया से छिपाकर अपना रिश्ता निभाने लगे। मैंने सोचा कि आगे की कहानी
में इसे विस्तार से दिखाया जाएगा कि क्यों आशीष की माँ ने इनके विवाह को हामी न भरी
लेकिन अवनि के गुस्सैल अवतार ने जब अपने पिता से अपना हक माँगा तो वह पिता कमजोर साबित
होकर उससे वादा कर गया और इस प्रकार कहानी की संरचना बहुत अच्छी व सुगठित लग रही थी।
लेकिन आज (23 सितंबर) का धारावाहिक देखकर
मुझे थोड़ा बुरा लगा कि एक धारावाहिक में क्यों इस दृश्य को दिखाया गया। दृश्य यह था
कि सिकंदर नामक व्यक्ति को सिर्फ इसीलिए काम पर नहीं रखा गया क्योंकि आशीष की माँ इसके
लिए तैयार नहीं थी। आशीष की माँ का कहना था कि वह किसी मुसलमान को अपने घर में आने
नहीं देगी। जब धारावाहिक में यह दृश्य दिखाया जा रहा था, तब मुझे थोड़ा अचरज लगा कि
इसे नजरअंदाज किया जा सकता था कि मुसलमान सिकंदर को आशीष के हिंदू परिवार ने सिर्फ
इसलिए काम पर न रखा क्योंकि सिकंदर मुसलमान था और उसके हिंदू परिवार में सिकंदर जैसे
मुसलमान की कोई जगह न थी और आशीष ने केवल इसीलिए अपनी माँ से आशा व अवनि के बारे में
नहीं बताया था।
हमारे देश व दुनिया में धर्म, जाति, रंग, भाषा आदि
कई नाम से भेदभाव किए जाते रहे हैं और मैं इसे गलत मानता भी हूँ लेकिन किसी धारावाहिक
में एक मुसलमान का चरित्र इस प्रकार दिखाना गलत भी है। मैं परिदृश्य उल्टा कर दूँ तो
क्या वही परिस्थिति नहीं बनती जो आशीष के घर में हुई, वह सिकंदर के घर में नहीं होती
लेकिन इसके साथ ही एक और सवाल जगजाहिर कर दिया कि क्या सिर्फ मुसलमान ही हमारे देश
में सबसे ज्यादा प्रताड़ित है?
हमारे देश की एक अजीब समस्या है कि किसी
भी माध्यम से एक मुसलमान को बार-बार एहसास दिलाना कि ये मुल्क पूरी तरह उनका नहीं है
और उनको हर दरवाजे पर अपनी प्रतिबद्धता दूसरों (गैरमुसलमानों) के सामने जाहिर करनी
पड़ेगी। हमारे देश में कईयों घटनाएं हो चुकी है और उनमें सभी का नुकसान हुआ है और अगर
कोई मानता है कि किसी विशेष समुदाय का ज्यादा नुकसान हुआ है तो यह अतिशयोक्ति ही होगी।
मैं यहाँ उन गलतियों की ओर ध्यान दिलाना नहीं चाहता हूँ क्योंकि ये सभी भौगोलिक परिस्थितियों
पर भी निर्भर होती हैं और इनमें बाहरी हस्तक्षेप की पूरी संभावना रहती है। एक भारतीय
के तौर पर किसी को भी इस दृश्य पर एतराज होना चाहिए कि टेलीविजन पर इस तरह के किसी
भी दृश्य दिखाने का क्या मतलब है और इस दृश्य से मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत बुरा लगा
कि मेरे भी कई मुसलमान मित्र हैं और हमारे बीच धर्म को लेकर कोई भेदभाव नहीं है।
प्यार में धर्म की बेड़ियाँ नहीं होनी
चाहिए लेकिन इस एक दृश्य को देखकर मुझे बुरा इसलिए भी लगा कि फिर से किसी हिंदू को
पूरे टेलीविजन पर बदनाम कर दिया गया और मेरे जैसे कईयों ने शांति से इसे देख
लिया। मैं इस धारावाहिक का विरोधी नहीं हूँ पर इसकी कुछ सीमा तो होनी ही चाहिए और यह
सीमा खुद इसके निर्माता व निर्देशक करें। यह धारावाहिक यथोचित चलते रहना चाहिए। हमारे
यहाँ बहुत सी चीजें होती है और हो भी रही है जो हम दैनिक क्रियाक्रम में नजरअंदाज कर
देते हैं और उक्त घटना पर हमें बाद में ग्लानि भी होती है और हम चुप भी रह जाते हैं
लेकिन क्या इन सभी को टीवी पर दिखाना सही है?
मैं फिल्मों का प्रशंसक हूँ और कुछ फिल्मों
में अजीब चित्रण भी हुआ है। कहानी अजीब ढंग से गढ़ी जाती है कि किसी गुंडे (मुसलमान)
ने किसी पुलिस की मदद की तो कभी किसी चाचा (मुसलमान) ने किसी हिंदू बच्चे की मदद की
और कभी किसी मुसलमान अफसर को किसी आतंकवादी घटना की जाँच का जिम्मा सौंप दिया गया हो।
मैं पहले इन दृश्यों को कहानी की रूपरेखा मानकर संतुष्ट हो जाता था लेकिन आज के दृश्य ने मुझे झकझोर दिया कि क्या ये सभी दृश्य यही साबित करने में लगे हुए थे कि मुसलमान
भी अच्छे हो सकते हैं, चाहे वे गरीब या गुंडे ही क्यों न हो। मुझे समझ में नहीं आ रहा
है कि दुविधा की स्थिति में कौन हैं, वे जो ऊँची इमारत में एसी कमरे में निर्णय लेने
की महती भूमिका में होते हैं या वे जो धरातल पर रोज की कमाई जोड़कर अपने लिए खाना उपलब्ध
करते व कराते हैं। क्या इंसान की अच्छाई या बुराई उसके धर्म से तय होती है?
अंत में यही कहना चाहूँगा कि कृपया इस
तरह के दृश्य दिखाना बंद करें क्योंकि हमारे आसपास ऐसी कई घटनाएं होती है जिनसे हमारा
घाव दोबारा हरा हो जाता है और हम फिर से उस दर्द को कम करने में जुट जाते हैं पर हम
सभी सार्वभौम तौर पर एक ही हैं।
विशेष: यह आलेख 23 सितंबर 2016 की रात बारह बजे ही लिखा गया था जिसे आज प्रकाशित
किया गया है। लेखक इस आलेख में व्यक्त सभी भावों के लिए जिम्मेदार है, बशर्ते इसमें व्यक्त सभी किरदारों को भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए।
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