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भूतिया लेखक

जब भी आप किसी फिल्म, लघुफिल्म, विज्ञापन, धारावाहिकों के किसी संवाद पर खुश होकर उसके लेखक को ढूँढते हैं तो आपको उससे जुड़े लेखक का नाम कार्यक्रम के आरंभ या अंत में दिखते हैं लेकिन क्या वाकई उसी इंसान ने वह संवाद लिखा है जिसपर आप इतनी हँसी-ठिठोली कर रहे होते हैं|
हमारे देश में भाषाएँ जितनी समृद्ध हैं, उतना ही बड़ा इनका बाजार है लेकिन इनके रचयिता तो शुद्धतः गैर-भारतीय भाषिक होते हैं| वे निजी जिंदगी या व्यवसायिक क्रम में किसी भी भाषा का प्रयोग करते हो, लेकिन कैमरे के सामने तो उन्हें भारतीय भाषाओं से जुड़े शब्द, हावभाव ही दिखाना होता है| मसलन, मैं हिंदी की विशेष चर्चा करूँगा|
हिंदी दुनिया की सर्वाधिक विज्ञप्रिय भाषा होने के साथ ही इसमें जो कला का समाविष्ट है, यही उसे दुनिया की सुंदर भाषा का ताज दिलाता है लेकिन इसके नामचीन जानकारों की कमी इसके अहम को चोट करती है और कभी-कभी इसके अहम के साथ समझौता भी हो जाता है और हम केवल देखने के बजाय कुछ भी नहीं कर पाते हैं| हिंदी के पास दुनिया का सबसे बड़ा बाजार मौजूद है जो भारत की वैश्विक आर्थिक शक्ति बनने की राह में एक मजबूत घटक साबित हो रही है|
फिल्मकारों को पैसा लगाना और उसे मुद्रीकृत करना भली-भाँति आता है लेकिन उपयुक्त भाषाई सूचना न होने के कारण उन्हें कई भाषाई जानकारों की जरूरत पड़ती है और यहाँ पर हमारे भूतिया लेखकों की प्रविष्टि होती है| ये लेखक अनामित रहकर किसी प्रतिष्ठित लेखक के नाम पर अपने शब्द गढ़ते रहते हैं| आप कह सकते हैं कि वे ये सब पैसों की खातिर ही करते हैं लेकिन एक उम्मीद की किरण के साथ कि किसी दिन तो इनके काम व नाम को पहचान मिलेगी और इस वजह से उन्हें किसी फिल्म या धारावाहिक के लेखक होने का तमगा हासिल हो सकता है| कई बार ये सामुहिक रूप से इकट्ठे होकर भी काम करते हैं जब इनसे चरित्रविशेष के आधार पर नियुक्त किया जाता है और इस आपाधापी की जिंदगी में किसी प्रस्तुतकर्ता के पास इतना वक्त नहीं होता कि वो पात्रताधारित लेखकों के नाम अपने कार्यक्रम के आरंभ या अंत में दिखाए और हम केवल उक्त कार्यक्रम के मुख्य लेखक का ही नाम जान पाते हैं|
आशा है कि मेरे इस आलेख से आप भी दो मिनट हमारे भूतिया लेखकों के बारे में सोचेंगे कि वे कैसे बेनामी रहकर हमारा मनोरंजन करते हैं और सबसे बड़ी बात कि किसी कार्यक्रम के लिए बजनेवाली तालियाँ इनको छोड़कर मुख्य लेखक के नाम होती है।

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