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मानक हिंदी

हम हमारे देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का दावा करते हैं और आशा भी करते हैं कि सभी भारतीय सहर्ष इसे अपना भी लें लेकिन पिछले सत्तर सालों के घटनाक्रम ने हमें यही बताया है कि इस देश में राजनीति छोड़कर हर किसी पर ब्रह्मास्त्र दागा जा सकता है, चाहे वो भाषा जैसी पवित्र स्वपल्लवित पुष्प ही क्यों  हो| हम अपने अहम वर्चस्व के चक्कर में मंत्रमुग्ध होकर अपने देश की सांस्कृतिक विधा का नुकसान कर रहे हैं और हमें ऐसा करके मजा भी रहा है| हम देश के किसी भी हिस्से में भाषाविशेष के नाम पर विरोध शुरु कर अपनी रोटियाँ सेकने लगते हैं कि किसी तरह स्थापित हो जाए ताकि अपनी भावी पीढ़ियों का पेट पाल सके और जब ये हो जाए तो कुछ अपना भी देख लें|
मैं किसी व्यक्तिविशेष पर इल्जाम नहीं लगाना चाहता हूँ क्योंकि कहीं कहीं हम सभी इसके लिए जिम्मेदार हैं| आप एक व्यापारी से पूछो कि क्या वो अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए किसी भी चीज को सीखने को तैयार है तो हमेशा हाँ में ही जवाब मिलेगा|

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