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मणिपुर की रूग्णकथा

पिछले कई दिनों से मणिपुर हिंसाग्रस्त है लेकिन हम आज भी नोटबंदी और उसके दुष्प्रभावों पर चर्चारत हैं। हम क्रिकेट में मिली जीत के जश्न में अभी भी चूर हैं। हम किसी राजनीतिज्ञ के वक्तव्य से व्यथित हो रहे हैं लेकिन हम अपने छोटे से सुंदर पहाड़ी राज्य को क्यों भूलने की चेष्टा कर रहे हैं?
वैसे इसका भी इतिहास बहुत नया भी नहीं है, अगर आपकी याद्दाश्त तेज हो, तो कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन को याद कर सकते हैं। इसपर भी काफी विवाद हुआ था, कुछ ने इसे देश तोड़नेवाला बताया, तो किसी ने इसके लिए माफी माँगने की भी धमकी दे डाली लेकिन हुआ वही ढाक के तीन पांत। हमारी याद्दाश्त हमें फिर से दगा दे गई और फिर से ये हादसा हो गया।
पहले इसकी वस्तुस्थिति पर चर्चा करेंगे क्योंकि इसके वगैर यह आलेख समग्र प्रतीत नहीं होगा और जैसे कि आप जानते हो कि मणिपुर हमारे पूर्वोत्तर का एक पहाड़ी राज्य है जिसकी पहचान दो तरीकों से होती है- सांस्कृतिक व जनजातीय और इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण तथ्य कि पहाड़ी लोग इसाई धर्मावलंबी हैं, जबकि मैदानी लोग मैतेई जनजातीय के हैं जिन्हें वैष्णव माना जाता है। जैसाकि हर जगह होता है कि लोग पहाड़ों के बजाय मैदानों में बसना अपनी सहुलियत समझते हैं और ये किस्सा यहाँ भी बदस्तूर जारी है। यहाँ की केवल दस फीसद आबादी पहाड़ों में रहती है और शेष जनता मैदानों में रहती है। यहाँ के केवल पाँच जिले पहाड़ी हैं और शेष मैदानी हैं लेकिन आप सोचिए कि यहाँ की कुल तीन पहचान होनी चाहिए। मैंने दो तो पूर्वपरिभाषित कर दिए लेकिन ये तीसरा भाव है- भारतीयता का और मेरे जैसे तथाकथितों ने इस तथ्य को अनदेखा कर इसकी परिस्थिति को पूर्णतः समझने की भूल कर रहे हैं। हमें यह समझना होगा कि मणिपुर जम्मू कश्मीर की ही तरह एक विशेष राज्य है और इसे आप जितना पर्देदार रखेंगे, इसकी समस्याएं उतनी ही जटिल हो जाएगी और पिछले सड़सठ सालों में हमने यही प्रयास किया है।
सबसे पहले तो हमने उनके आचारों को अपने दिनचर्या में शामिल नहीं किया। स्वतंत्रता पश्चात् हमने यही सोचा था कि हर भारतीय, चाहे वो किसी भी समूह, धर्म, पंथ, पहचान आदि का हो, उसके साथ कभी भी भेदभाव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा लेकिन आजतक ये बेरोक-टोक जारी है।
सबसे पहले तो किसी ने पूर्वोत्तर को हमारे समाचार चैनलों से गायब करवाया, हम तब चुप रहे क्योंकि हमारी दौड़ तो भूख, गरीबी खत्म करने में लगी हुई थी और रही-सही कसर हमारे लोग व उनके समर्थक चैनलों ने कर दिखाया जो आजतक निर्बाध जारी है। इन चैनलों ने, चाहे हिंदी के हो या अन्य भाषा के हो, पहले तो पूर्वोत्तर की हर खबर को गैरजरूरी समझ इसे हमारी जनता के सामने न दिखाया और बाकी हमारे राजनेताओं की इच्छाशक्ति ने कर दिखाया। 
मणिपुर में कुल दो लोस सीटें हैं और किसी भी राजनीतिक दल के लिए ये दो सीटें ज्यादा महत्वपूर्ण न होंगी, बजाय उप्र, मप्र, राज, या झार, बंगाल के और हमने हमारी देश की अखंडता को इस तरह चोट पहुँचाया और आज भी हम खुश हैं क्योंकि हम पश्च-नोटबंदी के दौर में किसी की तरफदारी कर रहे हैं तो किसी की मुखालफत कर रहे हैं और स्वयं को आत्मसंतुष्ट घोषित कर रात के घने अंधेरे में चैन से सो भी जा रहे हैं। मणिपुर में गैस सिलेंडर ₹२००० में मिल रहे हैं, तो पेट्रोल ₹ साढ़े तीन सौ प्रति लीटर मिल रहे हैं और यह हिंसा कोई पहला वाकया नहीं है। यहाँ पहले से ऐसे हादसे होते रहे हैं और हम उन्हें भुलाने में व्यस्त रहे हैं। हम अब भी नोटबंदी के जश्न में मग्न हैं और कुछ महीने बाद हम चुनावी जश्न में शरीक होंगे। हम कब यह समझेंगे कि हमारा देश इस तरह तो कभी विकसित राष्ट्र नहीं बनने वाला है। हम स्वयं को विश्वगुरु का नागरिक बताने से नहीं हिचकते हैं लेकिन सही मायने में विश्वगुरु सरीखे मानक लागू करने से हिचकते हैं। अब आप बोलेंगे कि ये पूर्व सरकारों की गलतियों का नतीजा है और वर्तमान सरकार कुछ अच्छा कर भी रही है। बदलाव एक दिन में तो नहीं होने वाला है और इस तरह मुझे किसी की आलोचना नहीं करना चाहिए।
लेकिन मैं इन दो दशाओं का मूल्यांकन करूँगा क्योंकि मैं जानना चाहता हूँ कि एक नागरिक के तौर पर हमने देश के लिए क्या किया, हमने देश की अखंडता हेतु कितने पर्व किए और तो और हमने देशसेवा हेतु अबतक क्या किया। हम पाँच साल में एकबारगी मतदान कर अपनी इतिश्री मान चिरनिद्रा में लीन होकर यही तय करने लगते हैं कि कोई झंडुलाल आएगा और अपनी जादुई छड़ी से सबकुछ ठीक कर देगा। जो राजनेता अपनी नाक हर मामले में घुसेड़ना चाहते हैं, वे इसपर मौन क्यों हैं। इसका सीधा सा सरल जवाब यही है कि इस मामलात से उन्हें कोई राजनीतिक नफा होने वाला नहीं है और हम भी यही चाहते हैं, भले ही हम भूखे रहे लेकिन देशभक्ति की पिपड़ी हमेशा बजाएंगे। आखिरी ये देशभक्ति तब कहाँ जाती है, जब मणिपुर या पूर्वोत्तर के किसी राज्य में कोई दंगा-फसाद भड़क उठता है और वहाँ लोग घरों में दुबकने को मजबूर हो जाते हैं और हम तब भी चैन की नींद लेना पसंद करते हैं। हमें तय करना होगा कि ये देशभक्ति तभी जीवित रहेगी, जब हमारा देश चिरप्रतिष्ठित रूप में स्थापित रहेगा लेकिन यहाँ भी हम नीरो की पिपड़ी बजाकर कहते रहते हैं कि भगवान की दया से सब ठीक हो जाएगा।
मैं एक घटना का उद्धरण लेना चाहूँगा। मौका था एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय (?) हिंदी चैनल का, जो अपने दर्शकों को ये बता रहा था कि किस तरह बाकी मुख्यधारा चैनलों ने मणिपुर की इस दर्दनाक घटना को नजरअंदाज कर दिया और उनके पूर्वोत्तर दर्शकों की माँग पर उन्होंने यह खबर दिखाने की ठानी। उस चैनल का संपादक अपनी छप्पन इंच की छाती पीटकर पूरी मध्यमा को दोषी पता रहा था कि किस कदर इनलोगों ने पूर्वोत्तर को पराया कर दिया और यह चैनल पूर्वोत्तरवासियों को भी उतना ही भारतीय मानता है, जितना शेष भारत के हैं और उसने खुद ही अपने चैनल के कसीदे गढ़ दिए और मैं वह देखकर तिलमिला गया कि देखो, एक तो ये इतने दिनों बाद यह खबर दिखा रहा है और ऊपर से अपना गुणगान भी कर रहा है कि इसने पूर्वोत्तर पहुँचकर उनपर (और मुझपर भी) अहसान कर दिया। मैं वैसे इस चैनल व उसके संपादक को धन्यवाद कहूँगा क्योंकि इसने करीब छः तक यह खबर दिखाया।
हमें यह समझना होगा कि जनविनिमय या इस जैसे किसी पैमाने के आधार पर ही हम हमारे इस देश को एकसूत्रीय रूप में बाँध सकते हैं, नहीं तो वैसा ही होगा, जैसे अभी तक हो रहा है। हम अपने चैनलों पर इस तरह की खबरें नहीं देख पाएंगे क्योंकि हमारे चैनल (सभी) विशेष विचारधारा पोषित हैं, जो उन्हें इस तरह की विशेष खबरें दिखाने से मना करती है और इसमें तो मैं एक उदाहरण भी जोड़ सकता हूँ- पबं की एक घटना पर चार महीने की शांति के बाद एक मध्यमा समूह का संपादक यह ट्वीट करता है कि वह वहाँ की खबर इसीलिए नहीं दिखा पाया क्योंकि वह इलाका बहुत दूर था। इनकी ओछी सोच को देखिए और हम सबकुछ भुल-भूलाकर वही चैनल लगाकर वही खबरें देखना पसंद करेंगे, जो वे दिखाना चाहेंगे।
मणिपुर की घटना से हम चुनावी नैया पार नहीं कर सकते हैं, हमें तो असहिष्णुता और इस जैसे गैरजरूरी मामले चाहिए जिन्हें हम पसंद कर सके और इनपर वृहत् चर्चा भी करा सके।
देखा, गलती कर दिया मैंने, मैंने भी अपना नाम औरों के साथ शामिल कर लिया जिनका काम केवल सस्ती लोकप्रियता पाना होता है और वे समाधान पर कम ध्यान देकर समस्या की ही चर्चा करना चाहते हैं क्योंकि इससे किसी का राजनीतिक फायदा होता है, तो किसी का व्यक्तिगत लेकिन हमें क्या, हम तो दाल-रोटी खाकर सो जाएंगे।
लेकिन मुझमें और अन्यों में एक फर्क है कि मैं हर चीज की तह तक जाना तो चाहता हूँ और इसके साथ समस्या के जड़ तक भी मैं पहुँच चुका हूँ लेकिन मुझे नहीं लगता कि बगैर भारतीय पहचान के यह समाधान वैसा ही प्रतीत होगा, जैसे चीनी अंडा। हमें इसका समाधान ढूँढने से पहले खुद को भारतीय ही कहना और मानना होगा क्योंकि तभी हम नफा-नुकसान के दुश्चक्र से बाहर निकल सकेंगे। हमें खुद से सवाल करना होगा कि हमने कितनी बार पूर्वोत्तर को जानने हेतु कोशिश किया और हमारे कितने शोध पूर्वोत्तरधारित हैं। अब आप बोलेंगे कि हमारे यहाँ शोध का स्तर बहुत निम्न है, तो हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि कोई शोध हमारे दिलोदिमाग में बसे उस अछूत बीमारी को पलभर में भगा देगा लेकिन इसके लिए भी हमें पहले से तैयार होना पड़ेगा।
मैं दावा करता हूँ कि पूर्वोत्तरवासियों को समझने हेतु सभी सरकारें व उनके दल सहित सभी मध्यमाएँ केवल एक घंटे प्रति सप्ताह देकर तो देखें, सभी समस्याएं छूमंतर हो जाएगी लेकिन इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। इसके लिए न तो टीआरपी मिलेगा और न ही कोई सहायता कोष लेकिन मेरे जैसे कई मतवाले अपने काज से समाज को आईना जरूर दिखाते रहेंगे।

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