मौलिकता की कमी
अनुवाद में कुछ मौलिक समस्याएँ आ रही है, जिनका निदान संभव है, पर मैं उस
मानसिकता का क्या करूँ, जो अंग्रेजी में हिंदी व अन्य भाषाओं
के शब्दों को आसानी से बयाँ कर देता है किंतु जब मैं इसके उलट करने का प्रयास करता
हूँ तो अधिकतर में असफलता ही हाथ लगती है|
मैं व्यवस्था को दोष
नहीं दे सकता क्योंकि यह व्यवस्था हमारे लोगों द्वारा हमारे लिए ही बनाई गई है और इसे
बदलने का समय आ गया है, लेकिन आगे कौन बढ़े और क्यों बढ़े|
इन लोगों का कोई व्यक्तिगत फायदा भी नहीं है और हमारे भाषाओं की परवाह
करना चप्पल खाने जैसा है| हमारी भाषाएँ केवल बोलने के लिए ही है और बाकी काम तो इन्हें दूसरे से चलाना होता है। हमारे सॉफ्टवेर अभियंता बहुत काबिल हैं
और अब तो ये लोग बहुप्रतिष्ठित कंपनियों के कर्ताधर्ता बन चुके हैं, लेकिन उनकी काबिलियत कहाँ घास चरने चली जाती है जब एक देशी खोजी इंजन की बात
उठाई जाती है| ये इतने काबिल हैं कि फेसबुक इन्हें हाथों-हाथ गोद में उठा लेती हैं लेकिन ये फेसबुक को टक्कर देने वाली कंपनी चलाने
में अक्षम हैं| कुछ लोग हैं, जो इस उद्योग
में दाँव लगा रहे हैं पर मुझे उनकी कर्तव्यनिष्ठा पर सवाल है और उन्होंने सिर्फ जीविकोपार्जन
के लिए एक छोटी गुमटी खोल रखा है|
वैसे भी कहावत है कि जब जागो, तभी सवेरा, तो मैं आगे बढ़ने को
अग्रसर हूँ, पर इसमें मुझे कुछ हाथों की भी जरूरत होगी और
मुझे एक दल की तलाश भी है।
इसका फायदा हमारे देश की विविध संस्कृतियों
का प्रतिनिधित्व करनेवालों को होगा| गूगल जैसी अन्य कंपनियाँ भारत में अपना प्रसार कर रही है और इसमें रोड़ा हमारी
भाषाओं की अनभिज्ञता है, वे हमारे भाषाओं को जानते ही नहीं हैं|
जो लोग अभी काम कर भी रहे हैं, वे भी औसत दर्जे
पर प्रदर्शन कर रहे हैं और इस तरह अनुवाद की प्रासंगिकता तो छोड़ ही देना बेहतर है।
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