मायाजाल नासमझी का
दस जनवरी को दैनिक जागरण पर एक खबर छपी थी कि हिंदी दुनिया की सबसे
ज्यादा बोले जानेवाली भाषा बन गई है लेकिन इस अखबार को पढ़ने से पहले ही मैं किसी
सजाल पर वही खबर पढ़ चुका था, उसी शब्दों में जैसे जागरण में लिखा गया था और मुझे
चिढ़ हुई कि यार, ये देखो कि चोरी कैसे होती है और वही खबर दोबारा पढ़ा लेकिन मन
में कुछ सवाल तैरने लगे|
हम दुनिया की सर्वाधिक बोले जानेवाली भाषा का प्रतिनिधित्व करते हुए भी न जाने भूल करते
जा रहे हैं और हमें शायद ऐसा करते हुए मजा भी आता है| हम ऐसा जान-बूझकर करते हैं,
इसमें थोड़ा संशय है लेकिन हिंदी या हमारी भारतीय भाषाओं के साथ अगर कुछ बुरा होता
है, तो हम इसके जिम्मेदार होंगे पर फिर भी किए जा रहे हैं| हम हमारे देश में हिंदी
को स्थापित नहीं कर पा रहे हैं और दुनिया से उम्मीद करते हैं कि वह हमारा अनुकरण
करे| हम अपने यहाँ हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को उनका कदाचित् स्थान क्यों नहीं
दे पाए हैं, इसका भी जवाब अबतक मेरे पास नहीं है| हम शायद उन सवालों से बचना चाहते
हो लेकिन सवाल हमारा पीछा करना नहीं छोड़ेगी|
हम हमारी भाषा
को केवल बोली के तौर पर जिंदा रखना चाहते हैं| हम उन्हें केवल कला-संस्कृति की
भाषा बनाकर ही रखना चाहते हैं लेकिन हम शायद एक बात समझने की भूल कर रहे हैं कि यह
दौर संस्कृति का नहीं है, यह दौर पूर्णतः कला का भी नहीं है| यह दौर तकनीक का है,
यह समय प्रौद्योगिकी का है| जो भाषा प्रौद्योगिक रूप से जितनी अधिक संपन्न होगी,
वह भाषा भावों को व्यक्त करने में उतनी ही सक्षम होगी|
हम कब समझेंगे कि हम अपनी
भाषाओं के साथ अन्याय कर रहे हैं| अन्याय छोटा या बड़ा नहीं होता, अन्याय से
होनेवाला आघात बड़ा या छोटा होता है और हम इन्हें केवल रोने-धोने की भाषा बनाकर
रखना चाहते हैं|
अखबार प्रति के
अनुसार दुनिया में हिंदी के वक्ताओं की संख्या सर्वाधिक है और दुनिया के लगभग
विवियों में हिंदी की शिक्षा दी जाती है लेकिन माफ करना बंधु, वहाँ हिंदी एक भाषा
के तौर पर पढ़ाई जैती है जो सांस्कृतिक समरसता का भी परिचायक है| दुनिया भारत को
अपना बाजार मानती है और सारा खेल इसी बाजारवादी मानसिकता का है| यह कुछ वैसा ही है
कि जब अफ्रीका में भारत की तरह बहार आएगी, तो ये लोग अफ्रीकी बोलना शुरु कर देंगे|
हमें तय करना
होगा कि हम हिंदी व अन्य भारतियों के प्रति क्या दृष्टिकोण रखना चाहते हैं जो वाकई
इनका विकास करेगी| हम आजकल कर यही रहे हैं कि हम अपनी भाषाओं से केवल अपना भला कर
रहे हैं और जब अपना काम निकल जा रहा है, तो अपनी भाषाओं को भूलने का जघन्य अपराध
करने से भी नहीं चुकते हैं| इसमें शायद हमारी गलती नहीं है, यह तो हमारे मूल में
ही है|
विचारिएगा।
जागरण कड़ी- http://epaper.jagran.com/epaper/10-jan-2017-139-edition-Dhanbad-City-Page-3.html
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
आप अपने विचार हमें बताकर हमारी मदद कर सकते हैं ताकि हम आपको बेहतरीन सामग्री पेश कर सकें।
हम आपको बेहतर सामग्री प्रस्तुत करने हेतु प्रतिबद्ध हैं लेकिन हमें आपके सहयोग की भी आवश्यकता है। अगर आपके पास कोई सवाल हो, तो आप टिप्पणी बक्से में भरकर हमें भेज सकते हैं। हम जल्द आपका जवाब देंगे।