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साबाजारी

माफ करना दोस्तों, मैं पहले सोचता था क्या, अभी भी मेरा यही मानना है कि जितने कम लोग मुझे जानेंगे, उतना ही अच्छा रहेगा लेकिन आज मैं एक दुविधा में फँस गया हूँ। मैं सामध्यमा जैसे फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन, आदि का २०१० से ही प्रयोक्ता रहा हूँ और मैंने इनका मनमुताबिक प्रयोग भी किया है लेकिन हमेशा यही उलझन रहती थी कि कही इन सबमें मैं न खो जाऊँ और जब मुझे इसकी पुष्टि मिली तो मैं धीरे-धीरे अपने पाँव समेटने लगा लेकिन अपने काम की पहचान और उसकी अस्मिता पर सवाल उठने के कारण मैं मजबूर हूँ कि मुझे वापस सामध्यमा पर आना ही पड़ेगा। 
मैं शायद अपनी अंकीय (यानि डिजीटल) पहचान को पुख्ता करना चाहता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं यहाँ से बिल्कुल गायब हूँ लेकिन मैं खुद को सीमित रखता आया हूँ और पिछले कुछ वर्षों से यही हाल हो गया था। ऐसा भी नहीं है कि मैं सामध्यमा से अलग होकर किसी विशिष्ट कार्य में संलग्न था, अपितु गूगल खोज पर केंद्रित हो गया था और ऐसा भी परिस्थितिवश हुआ। मैं जानबूझकर इनसे दूर नहीं हुआ और मेरे पास वाजिब कारण भी थे। मैंने पहले फेसबुक २०१३ में छोड़ा था और इसे "छोड़ना'' कहना थोड़ा गलत ही होगा लेकिन हाँ, मैंने इसे अघोषित रूप से रोका हुआ था। मैं इसकी सामग्री से खुश न था और ऐसा भी नहीं है कि सामग्री मुझे पसंद नहीं थी। सामग्री मुझे पसंद थी लेकिन उसका लश्कारा मुझे काटता था और आज भी मैं अगर इससे दूर हूँ तो भी इसका कारण यही है। हम सामध्यमा पर इसीलिए आते हैं कि हम कुछ खाली समय यहाँ बिताकर अपने दोस्तों से दुआ-सलाम ले लें लेकिन इसकी अंधी दौड़ ने हमें इतना गतिशील बना दिया कि आजकल हम रोज एक नया दोस्त ढूँढते हैं। दोस्त ढूँढना गलत नहीं है लेकिन इसके तौर-तरीके सही नहीं है। हम सामध्यमा पर समान सोचनेवालों को ढूँढकर उनसे संपर्क बढ़ाते हैं और मानव व्यवहार का यह सर्वसामान्य अंग है लेकिन गड़बड़ तो तब हो जाती है, जब कोई असमान सोचवाला बंदा हमारी प्यारी सी शांत आभासी दुनिया में खलल पैदा करने लगता है। वह हमेशा एकतरफा संवाद करता है और हमसे अपेक्षा रखता है कि हम भी उसकी बात सदा मानें और ये चीज मुझे चुभ जाती है। अब आप कहेंगे कि मैं उस बंदे की उपेक्षा कर सकता हूँ, जब मैं उसे व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता हूँ और वह भी मुझे नहीं जानता है तो भला क्या हर्ज है, हम उसे अवरूद्ध कर सकते हैं और इस प्रकार उससे पीछा छुड़ा सकते हैं।
मैं सामग्रियों की विषाक्तता से आहत था। मैं चाहता तो उपेक्षा कर सकता था लेकिन एकाधिक होने पर मुझे ही पीछे हटना पड़ा। मैं जनमानस पढ़ना जानता हूँ लेकिन अभी इसमें थोड़ा कच्चा हूँ, पर मैं जनभावना का सम्मान करते हुए किसी का निरादर नहीं कर सकता था क्योंकि मैं उस किसी को भी नहीं डाँट सकता हूँ जिन्हें मैं नहीं जानता हूँ और जो मेरी प्यारीसूची में नहीं हैं।
लोगों को क्या करना चाहिए, ये वे ही तय करें तो ज्यादा बेहतर होगा लेकिन लोगों को इसके साथ यह भी समझना होगा कि वे पहले एक इंसान हैं और इनकी पहचान इंसानियत के उसूलों से परिभाषित होती है लेकिन कुछ लोग हमारे इस तालाबरूपी मध्यमा को गंदा करने पर तुले हुए थे और ऐसा भी नहीं है कि ये आज ही शुरु हुआ है, ये तो 5 साल पूर्व ही आरंभ हो चुका था। मुझे अच्छा न लगा, तो मैं स्वतः दूर होता गया और पिछले कुछ महीने तो भयंकर थे। मैं कतई नहीं मान सकता कि इसमें कोई संगठनशक्ति है लेकिन हमारे असंगठित लोगों ने समभावना के साथ ऐसा कमाल किया कि मैं मंत्रमुग्ध हो गया और मैं और दूर हो गया। मैंने कई बार वापसी की कोशिश की लेकिन पूरी तरह सफल भी न रहा। मैं इस मुक्त विचारणीय माध्यम के अपरिभाषित नियमों को जानकर दुखी हो रहा था कि कोई तो आओ और इन्हें बचाओ लेकिन कहावत भी है कि मटकी की पानी तभी छिटकेगी, जब वह मटकी टुटेगी और हमारी सामध्यमा दुनिया को और कुछ चाहिए, जिसका उसे बेसब्री से इंतजार है।
मैं यहाँ केवल फेसबुक पर ही केंद्रित रहूँगा क्योंकि इसकी पहुँच अन्यों के मुकाबले अधिक है और यही मेरा पहला सामध्यमा भी था। मैं पहले-पहल बहुत खुश रहता था कि कितने नए दोस्त बनाऊँ, कैसे बनाऊँ, उनकी संख्या कैसे बढ़ाऊँ, एक तरह से बोलूँ तो ये एक नशे से कम नहीं थी जहाँ आप दौड़ तो रहे हैं लेकिन आपको पता नहीं है कि आपकी ठोर कहाँ तक है और यही दिक्कत मेरी राह में रोड़ा बनते गई। हम आपस में राजनीति, समाज आदि से जुड़े मसले साझा किया करते थे और मैं ज्यादातर में अपने मंतव्य ही देता था क्योंकि मुझे लिखना तो पसंद है लेकिन हमेशा यही सोचता रहता हूँ कि कहीं मेरी बातों से किसी को चोट न लग जाए और इस वजह से मेरा चिट्ठा भी न खुल सका और पिछले साल सितंबर में मेरा सजाल "ज्ञानज्योतिब्लॉग" दुनिया के सामने हाजिर हुआ लेकिन इसकी उपस्थिति भी दो-तीन महीने से ज्यादा न रह सकी। शायद विधाता को यही मंजूर था कि मैं दोबारा अपने पहले सामध्यमा फेसबुक पर आ जाऊँ और यहीं से अपने मंतव्य रखना शुरु कर दूँ।
और इसी के साथ मेरा फेसबुक पर तय वापसी माना जाएगा लेकिन इसके मूल पर सवाल करना लाजिमी है कि मैं अब क्यों वापस आना चाहता हूँ और यही समय क्यों चुना गया। मैं खुद पर सवाल क्यों उठा रहा हूँ, यही सोच रहे हैं न आप?
मैंने हमेशा खुद को आदर्श माना है और मेरा सर्वप्रिय मित्र भी मैं ही हूँ और इस दुनिया में अगर मैं किसी को सबसे नजदीक से जानने का दावा कर सकता हूँ तो वह बंदा केवल मैं ही रहूँगा। मैं पिछले एक साल से एक परियोजना पर कार्यरत हूँ जिसका उद्देश्य लोगों को कंपूटरी या सांगणिक तौर-तरीके सिखाना है और इसकी दक्षता व प्रभाव पर फिलहाल संकट के बादल इसलिए नहीं है क्योंकि मैं पूरी तरह से इसके लिए तैयार हूँ। मुझे मानसिक तौर पर खुद को मजबूत रखना होगा क्योंकि मेरा मकसद मेरी परियोजना का विस्तार दुनियाभर के उन पाठकों तक पहुँचना है जो हिंदी को अपना प्यार, पसंद या माँ का दर्जा देते हैं। मैं यहाँ किसी विरोध की गुंजाइश नहीं रखना चाहूँगा क्योंकि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि हम चाहे कुछ भी सोचे, होता वही है जो पहले से तयशुदा है और यही बात मुझे कई बार रोमांचित भी करती है लेकिन मुझे सब्र भी रखना होगा।
मुझे हरेक हिंदी पाठकों तक पहुँच बनाने हेतु एक समूह का निर्माण करना होगा और फेसबुक के इस समूह से कोई भी जुड़ सकते हैं और इसके लिए किसी पात्रता की जरूरत न होगी लेकिन एक प्रतिबद्ध वातावरण में कसे संदेशों से बद्ध यह समूह शायद शुरु में आपको नीरस लगे क्योंकि यह आपको हिंदी सिखाने वाला है।
हाँ, आपने सही सुना कि आप इस समूह में हिंदी के अनन्य पाठक होंगे लेकिन इसकी कोई पाठ्यपुस्तक न होगी। यह पाठ्यक्रमहीन होकर सीधे-सधे शब्दों से लोगों के जुबाँ तक पहुचेगी और मेरा वादा है कि अगले कुछ महीने इसके लिए काफी महत्वपूर्ण रहने वाले हैं। आप इसे हिंदी की नई शाखा भी कह सकते हैं और मैंने इसका एक नाम भी रखा है- विद्वतहिंदी।
मेरा आपसे एक अनुरोध है कि इसे जनांदोलन की भाँति आगे बढ़ाने में अपनी महती भूमिका जरूर निभाएँ। इसके शीर्षक साबाजारी का अर्थ बड़ा सरल है- सामाजिक बाजारीकरण अर्थात् सामाजिक मध्यमा यानि सामध्यमा का प्रयोग कर कैसे अपने सामग्री का बाजार बढ़ाया जाए।
अच्छा आपने गौर किया कि शुरु से अबतक मैंने कुल 1243 शब्द लिख डाला लेकिन इसके प्रयोजन पर मैंने बोला ही नहीं। मैंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया लेकिन मैं चाहता हूँ कि  यह सिर्फ एक औपचारिकता भर न रहे, इसीलिए मैं इसके प्रयोजन पर सबसे आखिर में लिखनेवाला हूँ। 
विद्वतहिंदी हिंदी की पहली समग्र विज्ञानसम्मत अंग होगी जिसमें विज्ञान, प्रबंधन, अभियंत्रण आदि से जुड़े सभी शब्दों को उनके परिष्कृत व व्यवहारिक रूप में स्थापित करेगी और इसके साथ ही आशा करता हूँ कि मेरी यह कोशिश दुनिया की पहली फेसबुक आधारित शब्दोकोष बनेगी और आप सभी इसके यज्ञोपवीत बनेंगे।

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