सियासत का खेल
खेल कोई भी हो, देखने में तो मजा ही आता है। हमें कोई फर्क
ही नहीं पड़ता कि खिलाड़ी क्या सोच रहे हैं और उनके मनोभाव क्या हैं। हम तो सोचते
की जहमत भी नहीं लेते कि हारनेवाला क्या सोचता होगा और हम जीतनेवाले की याद में
मग्न हो जाते हैं।
और बात जब सियासत के खेल की हो, तो क्या कहना! हम तो चाव से मजा लेते हैं।
प्रतिद्वंदी कोई भी हो, मजा तो तब आता है जब कोई किसी को पटकनी देता है और
पटकनेवाला कोई अपना सगा निकल जाए तो मजा दोगुना हो जाता है और पटकनी खानेवाला कोई
बाबूजी होता है, तो मजा चौगुना हो जाता है।
हालिया राजनीतिक घटना ने हमें हतप्रभ कर रखा है कि कैसे एक राजनीतिक जंग एक
पूरे परिवार को तोड़ने में सिद्धहस्त होती है और कोई सगा कैसे अपनी भूमिका को
प्रभावित करने हेतु कैसे एक-एक करके हथकंडा अपनाता है।
भला कोई कैसे कर सकता है ऐसा काम, जो अक्षम्य हो लेकिन ऐसे अनैतिक कृत्य हमारे
यहाँ सदियों से होते रहे हैं और हम भी ऐसे घटनाओं से सदा अपरिचित रहना चाहते हैं
और तब तक रहते भी हैं जब तक कोई हमें वह पाठ दोबारा न पढ़ा दे।
आज जो लोग इस तमाशे का मंचन कर रहे हैं, उन्हें ऐसे मामलों से दूर रहना चाहिए,
बल्कि उन्हें ऐसे सभी कृत्यों से हायतौबा भी करना चाहिए क्योंकि तात्कालिक तौर पर
तो ये किसी के लिए भी फायदेमंद साबित हो सकते हैं लेकिन ये पूर्णकालिक नुकसानप्रद
होते हैं। हम दूसरों का नुकसान कर अपना फायदा मान लेते हैं लेकिन हम इसमें भी अपना
अहित करते हैं। हम कैसे किसी परिवार को तोड़कर हँसी-ठिठोली कर सकते हैं और हम तो
ऐसे मामलों में सीमा लाँघने में भी देरी नहीं करते हैं लेकिन हमें घर तोड़ने के
बजाय घर जोड़ना चाहिए। हमें घर बनाने के बजाय घरों को जोड़ना आना चाहिए।
आशा है कि चुनावी मौसम आने के साथ इस परिवार में खुशियों की बारिश होगी और यह
परिवार दोबारा इकट्ठे होकर हर रस्म मनाएगा।
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