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सोच अनेक!!!

मैं अपनी माँ के बारेमा एक बात लिखूँगा। मैंने हमेशा अपनी माँ को अपने आदर्श के रूप में देखा है और कइयों बार मुझे इस तरह भी सोचना पड़ा है कि अगर वह मेरे जगह होती, तो क्या करती लेकिन मेरी और इनकी कार्यशैली में फर्क होने के कारण थोड़ा अंतर रह ही जाता है लेकिन मैं इनकी या किन्हीं की भी कार्यशैली पर सवाल नहीं उठाना चाहता हूँ और न ही कभी उठाऊँगा क्योंकि मैं हमेशा स्वतंत्र ख्यालों में खोया रहना चाहता हूँ और इस तरह के पचड़ों से दूर रहना चाहता हूँ।

हम सभी अपने जिंदगी में व्यस्त रहते हुए कई अनाम चीजों से रूबरू होते हुए भी उनसे अंजान बने रहने की सदा कामना करते हैं और उनको कभी अलविदा भी नहीं कह पाते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि कई बार हमें उन चीजों को भी स्वीकारना पड़ता हैं, जिन्हें हम नहीं चाहते हैं। हम उन्हें छोड़ देते हैं या छोड़ना चाहते हैं लेकिन उनकी अहमियत को तलाशना नहीं चाहते हैं। हम, आप सोचने पर मजबूर हो सकते हैं कि जब हम वो चीज नहीं चाहते हैं, तो उनकी अहमियत क्यों जानें। मैदान में हारनेवाला दोबारा जीत सकता है लेकिन मन से हारनेवाला कभी दोबारा नहीं जीत सकता है क्योंकि उसके मानस पर यह मुद्रित हो चुका है कि वह जब भी वह काम करेगा, उसे असफलता ही हाथ लगेगी लेकिन वह यह समझने में माहिर नहीं होता कि असली खेल तो समय खेल रहा है। समय ऐसा खिलाड़ी है जिसे अच्छे सूरमा भी आजतक नहीं समझ पाए हैं। समय अपनी छाप ऐसे स्वरूप में छोड़ जाता है कि हम उसे इंसानी गलती मानकर किसी इंसान को इसका कारण बनाते हैं और कई बार इसकी चपेट में ऐसे लोग भी आ जाते हैं जिन्हें हम पहचानने की भी जहमत नहीं उठा पाते हैं। हम केवल उनपर दोष मढ़ना चाहते हैं और इस कदर अपनी अभिलाषाओं की पूर्तिकामना करते हैं। हम अपनी इच्छाओं से घिरे रहने के कारण एक अनाम स्वप्न में रहने के अहसास में शेष जीवंत दुनिया को भूल जाते हैं। हम केवल अपने बारे में सोचते हैं और बाकी दुनिया के बारे में हमारे विचार यही होते हैं कि लोग हमसे दूर हो गए हैं लेकिन हकीकत में हम लोगों से दूर हो जाते हैं। हम उनलोगों को भूल जाते हैं और उनको भी भूलने की चेष्टा करते हैं जो कभी हमारे साथ रहने का अहसास दिलाते थे। हम उन्हें कैसे भूल सकते हैं जो हमें जिंदा होने का अहसास दिलाते हैं। हम उनको भी भुलाने की कोशिश कर जाते हैं जो कभी हमें स्फूर्ति का अहसास कराते थे। हम उन्हें भी भूल जाते हैं जो हमें प्यार करने का मौका देते थे।
लेकिन आज...
कुछ भी नहीं है। हम किसे याद करें, यही तय नहीं कर पाते हैं। हम उन्हें याद करें भी तो क्यों, यही सोच नहीं पाते हैं। हम अपनी उलझनों में फँसकर उन्हें भुलाने की तैयारी कर रहे होते हैं जो हमें कभी जान से ज्यादा तो नहीं लेकिन कम भी न थे।
और आगे क्या...
हम सबकुछ भुलाकर आगे बढ़ जाते हैं। हम क्या सोचते हैं, ये उन्हें पता नहीं होता और पता कैसे भी हो, हम उन्हें फोन नहीं कर पाते और वे मुझे नहीं और आगे की कहानी खत्म क्योंकि मैं सन्न हूँ क्योंकि मेरे पास जवाब नहीं है। मैं बात करूँ भी तो क्या, मेरे पास बात करने के लिए कुछ नहीं है। मैं सोचता हूँ कि मैंने अबतक जो भी वार्ताएं की है, वे सब बेकार थी (शायद) और मैं फिर से चुप हो जाता हूँ। मैं शांतचित्त होकर देखना चाहता हूँ कि आगे क्या होता है, लेकिन आप जानते ही नहीं हो कि आगे क्या होने वाला है और आप फिर चुप होते हैं क्योंकि अगर आपसे किसी ने सवाल कर दिया तो आपके पास इसका कोई जवाब नहीं होता और आप फिर उसके जवाब के पीछे पड़ जाते हो क्योंकि आपके लिए किसी अनाम सवाल का जवाब आपके जीवन का महत्व बन जाती है। हम उनके पीछे पड़ जाते हैं जो किसी अमहत्वहीनता के शिकार हैं लेकिन तब भी हम क्यों उनके पीछे पड़ जाते हैं, पर हम तब भी हँसते हैं। 
हम उस महत्वपूर्ण शख्स को छोड़कर उससे जुड़े अमहत्वहीन सवाल के जवाब ढूँढने में व्यस्त हो जाते हैं। (मैं अभी न जाने, क्यों हँस रहा हूँ, मुझे वाजिब कारण भी पता नहीं है लेकिन मेरी मुस्कान मुझे हँसा रही है) मैं अब खुश हूँ क्योंकि मैंने इतने सारे सवाल खुद से पूछ लिए हैं जिनका जवाब खुद मेरे पास होते हुए भी मैं अक्षम हूँ। मैं अक्षम हूँ क्योंकि मैं ठहरा हुआ हूँ। मैं ठहरना चाहता था। मैं अभी भी ठहरा हुआ हूँ। मेरे पास कोई जरूरी तथ्य नहीं है कि मैं क्यों किसी स्थान पर ठहरूँ या किसी भी जगह ठहरने का प्रायोजन क्या होना चाहिए, ये तक मुझे पता नहीं है। मैं अभी ठहरा हूँ लेकिन कब तक, यह भी पता नहीं है। मैं जवाबहीन हूँ। आजकल नोटबंदी चल रही है लेकिन मेरी ठहरबंदी कब होगी। मैं शायद ठहरे हुए ही रहना चाहता हूँ लेकिन कब तक, ये मुझे ही तय करना पड़ेगा। मैं हमेशा यूँही ठहरना नहीं चाहता हूँ। मैं किसी द्वंद्व में हूँ लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि मैं कहीं ठहर जाऊँ। मैं और मुझे ठहरना चाहिए कि नहीं, ये सवाल मैंने पिछले कई महीनों तक टाल रखा था क्योंकि मुझे लगा था कि जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है और अच्छे की शुरुआत मेरे लिए इसी तरह ही होती है। आप कई बार अच्छे की कामना में ऐसों को आमंत्रित कर जाते हैं कि शायद जिन्हें आप एकबार में पहचान न पाएँ।
मुझे याद है कि मैं उस दिन अपने एक अजीज दोस्त से मिला। मुझे और उसे अभिन्न गंतव्य तक जाना था लेकिन कुछ कमी थी। हम दोनों ही अलग प्रकृति के थे। हमारी सोच बेमेल थी और मैंने ऐसा दिखा भी दिया। मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया लेकिन हो गया। आप कुछ बार ऐसा कर जाते हैं कि जिंदगीभर आप उसकी माफी माँगो, परिणाम निठल्ला ही होना है। हमारी डेढ़ घंटे की यात्रा थी और उसे देखकर शायद मैं ज्यादा ही खुश हो गया था, जैसे मेरी बाँछें ही खुल गई थी। मैं उत्साही हो गया था। मुझे रोकनेवाला कोई न था, मैं उसे अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा मानता था और यह धारणा अब टूट भी चुकी है। आपको बुरा लगा ना, मुझे भी लगा था, जब मुझे यह अहसास हुआ कि मैं उसे वाकई पसंद करता था और मैं उससे जुड़े कई ख्वाब भी पालता था और आज हम कहाँ हैं, मुझे उसकी ठोर नहीं है। हम दुनिया के किसी भी छोर में पहुँचकर कितनी भी चीजें क्यों न हासिल कर लें, लेकिन ये यादें आपको ठहरने पर मजबूर करती है। आप इस मुकाम पर पहुँचकर कैसे नहीं ठहर सकते हो, मैं खुद अभी सवाल कर रहा हूँ लेकिन मेरे पास जवाब नहीं है। मैं कई हस्तियों को जानता हूँ जिनका जलवा अगले कुछ वर्षों में दुनिया के सामने आ जाएगा और आप खुश होंगे कि वे मेरे मित्र हैं और कुछ मेरे जान-ए-जहाँ।
मैंने कुछ विश्लेषण किया और पाया कि इंसान कुछ विशेष कारणों से ठहरना पसंद करते हैं और उनमें से पहला कारण है- आप उसे दोबारा नहीं चाहते हो। दूसरा कारण तो और भी दिलचस्प है क्योंकि यह मुझे बताता है कि आप उनसे दोबारा मिलना चाहते हो, जिनसे आप बिछड़ चुके हैं। तीसरा कि मैं तय नहीं कर पाया हूँ कि आगे बढ़ूँ तो किसके साथ, शायद मुझे किसी साथी की दरकार है लेकिन इस सुखाड़ में मेरा साथी कौन बनेगा। मैं जानता हूँ कि इसका दोषी सुखाड़ नहीं है, मैं हूँ और केवल मैं हूँ लेकिन कई बार आप चीजों को होने देते हैं। मैं कई रात केवल यही सोचकर जाग चुका हूँ औऱ अंततः मेरे हाथ कुछ नहीं लगा। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि मैं एक जादूगर बन जाऊँ और अपनी सभी बिछड़ी यादें आबरा का डाबरा बोलकर दोबारा हासिल कर लूँ। मैं कई दफा यह सोच चुका हूँ कि मुझे जिनकी दरकार है, मैं उन्हें सीधे मुँह क्यों न बोल आऊँ लेकिन मैं खुद पुष्टि करने में असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि यह अब ज्यादा हो गया है। आप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं और चीजें आपसे दूर होने लगती है। आप जानना चाहते हो कि मैं इस वक्त क्या सोच रहा हूँ। मैं यह सोच रहा हूँ कि मुझे अपनी इस कृति के लिए नोबल मिलने वाला है। जब मैं साठवर्षीय होऊँगा, तब कहीं से एक चिट्टी आएगी और मुझे बताएगी कि अगला नोबल मैं हूँ लेकिन तब मैं क्या करूँगा, ये मैं तय नहीं कर पाता हूँ। मैं यह सोचता हूँ कि यह नोबल हिंदी को समर्पित होगा लेकिन क्या एक नोबल पुरस्कार मुझे क्या कुछ नई और उत्साहवर्धक चीज दिलाएगा, जो वाकई मैं चाहता हूँ, क्या वो मेरी यादें मुझे हकीकत में बदलने की शक्ति देगा और इस तरह मैं नोबल को अस्वीकार जाता हूँ। मैं अगले कुछ दिनों तक शब्दहीन बनने की चेष्टा करता हूँ क्योंकि मैं बॉब डिलन नहीं हूँ। मैं कुमार रोहित हूँ जिसका नाम अगले दस वर्ष में रोहित सरोज होगा। मैं अपनी माँ के नाम से पहचाना जाऊँगा और इसका कोई वाजिब कारण भी मुझे पता नहीं है लेकिन मैं इस नाम को खुशी से अपनाऊँगा और मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूँगा लेकिन तबतक क्या मैं ठहरा रहूँ, बिल्कुल नहीं, मैं नहीं ठहर सकता हूँ। मुझे आगे बढ़ना ही होगा, आप कैसे पीछे रह सकते हो, जब समयरूपी पहलवान आपको जबरदस्ती आगे कर ही देगा तो आप चुपचाप आगे बढ़ते रहेंगे और आपकी उम्मीद भी इस दफा बढ़ती जाएगी लेकिन आप नहीं मुस्कराएँगे। आप खुश तो होंगे लेकिन आपकी मुस्कान गायब होगी क्योंकि आपको तो बहुत सी चीजें हासिल करना अब भी बाकी ही है और ये उसी तरह होगा कि आपने दुनिया के चार सौ वसंत देख लिया लेकिन वह मुखड़ा नहीं देखा जो कभी आपकी जान थी। आप अब मुस्काने की चेष्टा करते हैं और फिर असफल हो जाते हैं क्योंकि मेरी बातें आपको उसकी याद तो दिला रही है लेकिन मिला नहीं रही है। आप उससे मिलने को तरसते हैं लेकिन कोई चारा भी तो नहीं है। आप फिर मसोसकर रह जाते हैं। आप फिर शांत हो जाते हैं और जिंदगी इसी तरह चलते रहती है और आप दुनिया से अलविदा हो जाते हैं।

कभी अलविदा न कहना.........

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