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हिंदी के रखवाले

हिंदी के रखवाले
यह शीर्षक थोड़ा अटपटा जरूर है लेकिन हम जिस युग में रह रहे है, उस युग के बिल्कुल माफिक है। हम विश्व के किसी भी कोने में हो, हम अपनी हिंदी को पीछे नहीं छोड़ पाते हैं। हम अपने देश को भूल जाना मंजूर कर लेते हैं लेकिन अपनी हिंदी को भूलना कतई मंजूर नहीं करते हैं और शायद यही हमारी विविधता की सबसे बड़ी शक्ति है। मैं इसमें हमारी सभी भारतीय भाषाओं को शामिल कर रहा हूँ क्योंकि हमारे लोग अमूमन दो भाषाएँ तो जानते ही हैं और कभी-कभी यही आँकड़ा पाँच-छः तक पहुँच जाता है।
हम जब स्वयं को हिंदीभाषी के तौर पर खुद को पूरी दुनिया में परिभाषित करते हैं तब हम उस देश की तात्कालिक परिस्थिति का अनुसरण करते हुए ऐसा करते हैं। मैं मानता हूँ कि वैश्विक मानक उदारीकरण पश्चात् अधिक समझदार हो गए हैं और यही वजह है कि वैश्विक फलक पर हर किसी को पेश होने का मौका मिल जाता है। और जो सबसे योग्य होता है, उसे मंजूरी भी दी जाती है लेकिन हमारी हिंदी के साथ यह मामला जुदा है।
हमारी हिंदी के पास सर्वाधिक वक्ता हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र (संरा) में इसकी वैधानिकता नहीं है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हमारी हिंदी संरा की आधिकारिक भाषाओं में शामिल नहीं है और इसके पीछे का कारण भी परिभाषित नहीं है। हम अगर संरा की नियमावली को ध्यान से देखें, तो यह पृथ्वी के सभी देशों का प्रतिनिधित्व करती है।
हमारी भारत सरकार भी हिंदी को लेकर इतनी उदासीन है कि वो ये भी तय नहीं कर पा रही है कि हिंदी के साथ क्या किया जाना चाहिए। हमारे यहाँ एक राजनीतिक कहावत भी है कि जब हम किसी समस्या का समाधान नहीं कर पाते हैं तो उसे उसी हाल में छोड़ देना चाहिए। हम भी भूलवश हमारी हिंदी के साथ यही दोहरा रहे हैं। हम जब जन्म लेते हैं और तब से हिंदी या अन्य भारतीय भाषाएँ ही बोलते हैं और शायद तबतक बोलते रहते हैं जबतक हमारा काम न निकल जाए लेकिन भाषा आज केवल संचार का माध्यम ही नहीं है।
हमारी भाषाएँ हमारी विशाल परंपरा की विरासत हैं जिन्हें संजोए रखना जरूरी है। अगर हम ऐसा न कर पाए तो वही होगा कि कुछ सौ-डेढ़ सौ सालों बाद हम जब किसी संग्रहालय के किसी कोने में हमारी हिंदी की तख्तियाँ टाँगे हुए पाएँगे। मैं मानता हूँ कि यह मात्र कोरी कल्पना है लेकिन इससे भी बुरा हो रहा है हमारी हिंदी के साथ। हम क्यों एक सीमा के बाद हमारी भाषाओं को पीछे छोड़ देते हैं और हम फिर सदा के लिए चिरनिद्रा में ऐसे लीन हो जाते हैं कि हमारा उनसे कभी नाता ही नहीं था।
हम अपनी भाषाओं को भूलने लगते हैं। हम अपनी भाषाओं को बोलना जारी रखते हैं लेकिन उसकी प्रकृति को समझना भूल जाते हैं। हम जबतक अपनी भाषाओं में शिक्षार्जन कर रहे होते हैं, तबतक हमें हमारी भाषाओं की प्रकृति का उचित ध्यान होता है और हम अपनी भाषाओं के नए शब्द भी सीखते हैं लेकिन जैसे ही दूसरे नाव पर सवार हो जाते हैं, यह बहाव दुरूह हो जाती है। यह ऐसे ठहरती है कि फिर उसे बहने करने का मौका ही नहीं मिलता है।
हम शायद अपने इतिहास से सीख नहीं ले पाते हैं और यही वजह है कि हमारा इतिहास आजतक अधूरा ही है। हमारे ऐतिहासिक परंपरा की कई वस्तुएँ आज संग्रहालय की बाट जोह रही हैं और वही पड़े-पड़े धूल भी फाँक रही है। हमारे कई मंदिर, गुफाएँ आज विश्व विरासत की सूची में हैं लेकिन वे सभी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। हम 500-600 साल बाद अपने पीढ़ियों को यह बतानेवाले हैं कि यहाँ पर कभी कोई विश्वप्रसिद्ध धरोहर थी और कंबोडिया का विष्णुमंदिर तो इसका सबसे बड़ा जीवंत उदाहरण है।
हमें तय करना होगा कि जब हमारा देश व हमारी भाषाएँ हमें तय अनुसार हमारा हिस्सा हमें बखूबी देती है, तो हम अपना हिस्सा उन्हें क्यों नहीं दे पाते हैं। हम अगर अपना हिस्सा उन्हें नहीं दे पाएँगे, तो कुछ नहीं होगा। हमारा अगला दिन वैसा ही होगा, जैसाकि आज है और यहाँ देशभक्ति की पिपड़ी बजाना फिजूल ही होगा।
लेकिन अगर हम अपना हिस्सा अपनी भाषाओं को देते हैं तो इससे अंततः हमारी भाषाओं का ही भला होगा। हमारी भाषाओं की सेवा करने के लिए कई मार्ग हैं, मसलन आप शब्द निर्माण, आलेख लेखन, सामग्री लेखन, कथा, व्यंग्य आदि कई विधाओं में अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं। इस तरह हम स्वकार्यों द्वारा अपनी भाषाओं को नए शब्द दे पाएँगे ताकि जो कुछ लोग तथाकथित रूप से हमारी भाषाओं का तिरस्कार करते हुए कहते हैं कि हमारी भाषाओं में उचित व सार्थक शब्द की कमी है। हम तब न जाने क्यों उनलोगों को जवाब नहीं दे पाते हैं जो हमारी भाषाओं का तिरस्कार करके भी लज्जा महसूस नहीं करते हैं। वे फक्र से हमारी भाषाओं का विरोध करते हैं और हम उन्हें शिरोमणि मानकर तख्ते पर बैठा देते हैं।
लेकिन कहावत भी है कि जब एक दरवाजा बंद होता है, तो दूसरा अपने आप खुल जाता है। आज जब सरकार, संस्था, कार्यकारिणी आदि की भूमिका बढ़ जाती है कि वे किस तरह हमारी भाषाओं का उचित संवर्धन कर सके, वहाँ हमारे लोग यानि हम आम आदमी ही हमारी भाषाओं के सबसे बड़े पुरोधा के रूप में उभर रहे हैं। हमारे बीच कुछ लोग हैं जो निस्वार्थ भाव से हमारी भाषाओं की सेवा कर रहे हैं।
लेकिन हम भी एक गलती कर रहे हैं और यह गलती इतनी ही है कि हमारे पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो जान सके कि हमारे पास कितने रचनाकार हैं जो अपनी विभिन्न प्रकारों की रचना से हमारी भाषाओं को समृद्ध कर रहे हैं और यह शुरु से होना चाहिए, नाकि पाँच-दस साल बाद जब वह शख्स अपने श्रम के कारण उच्चतम स्तर पर होता है।
हमें उन्हें पहचानना होगा जो हमारी भाषाओं के रखवाले बन रहे हैं और निस्वार्थ भाव से हमारे भविष्य की रक्षा कर रहे हैं और यह जल्दी होना चाहिए। मैं इसके लिए एक चीज करने की सोच रहा हूँ कि अंतर्जाल पर हिंदी के जितने भी सजाल हैं, मैं उन्हें अपने सजाल पर सूचीबद्ध करूँगा ताकि आपको हिंदी व उसकी बहनों से जुड़ी जानकारियाँ एक ही चौपाल से मिल सके।
अगर आपको मेरा सुझाव पसंद है और आप कुमारवाणी पर योगदान देना चाहते हैं, तो संपर्क प्रपत्र भरकर मुझे सीधे संदेश भेज सकते हैं। आपका उचित सहयोग हमारी भाषाओं के विकास में सार्थक ही सिद्ध होगा।
विशेष: जब मैं भाषाओं का जिक्र करता हूँ, तो इसमें हमारी सभी भाषाएँ, जैसे- बँगला, तमिल, तेलगु, मलयालम, राजस्थानी, मराठी, गुजराती आदि सभी को सम्मिलित करता हूँ।

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