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हिंदी के पुरोधा


मैं एक हिंदीप्रेमी व लेखक (कुछ हद तक) के नाते पूरे भारत व उसके नागरिकों से आह्वान करना चाहता हूँ कि हिंदी सहित हमारी सभी भाषायें मातृतुल्य हैं और सर्वजनों को इनका सम्मान सदैव करना ही चाहिए। मैं एक भाषा के अन्य पर अधिपत्य को स्वीकारने के पक्ष में नहीं हूँ, किंतु हमें यह भी समझना होगा कि जबतक हमारी भाषाओं के बीच आपसी समन्वय स्थापित नहीं होगा, तबतक हम भाषाई विविधाताओं को स्वीकारने में हम असमर्थ साबित होते रहेंगे।

मैं एक भाषाप्रेमी के तौर पर भी सभी को आशवस्त करना चाहता हूँ कि हमारी भाषाओं के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलना चाहिए और ऐसा किसी राजनीतिक व अराजनीतिक हस्तक्षेप के बगैर ही मुमकिन है। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होने से हमारी भाषाओं की विविधताओं में वृद्धि ही होगी और वे शाब्दिक रूप से भी समर्थवती साबित होंगी।

हमारे यहाँ का एक धड़ा हमेशा यही साबित करने में लगा रहता है कि हमारी भाषाओं को उनके रहमोकरम पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि इन तथाकथितों का मानना है कि ये जनभाषाएं किसी भी रूप में इनके जागीर हैं और अपने पूर्वजों की संपत्ति की तरह उनकी पोटली में ये भाषाएं अवश्य शामिल रहेंगी। पिछले सत्तर सालों के अनुभवों ने हमारी भाषाओं को तड़पाया अधिक है, वर्ना हमारी भाषाओं में शाब्दिक कमी के लक्षण कम होते दिखते लेकिन इन तथाकथितों के व्यक्तिगत विरोध ने हमारी भाषाओं को ज्यादा कमजोर बना दिया है। 

मैं यह नहीं कहना चाहता हूँ कि हमारी भाषाएं जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं लेकिन उससे कम बदतर हालत भी नहीं है। मैं इस आलेख के माध्यम से हिंदी के बारे में हमारी जनता व उनके जनप्रतिनिधियों को बताना चाहता हूँ कि यह भाषा हमारे देश में सेतु के रूप में कार्य करती है। आप देश के किसी भी हिस्से में हो, हिंदीप्रेम से परिचित हो ही जाएंगे। 

मैं चाहता हूँ कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का सही दर्जा मिलना चाहिए, जहाँ अंग्रेजीरहित वातावरण में हमारी भाषायें खुलकर साँस तो ले सके लेकिन मेरी बात किसी को कैसी समझ आएगी, जब वो दिनभर अपनी रोटी की तलाश में जीतोड़ मेहनत कर रहा होगा। अब आप बोलेंगे कि मैं अंग्रेजी विरोध के नाम पर हिंदी को आगे बढ़ाना चाहता हूँ। 

लेकिन मैं इसमें दो तथ्य जोड़ूँगा- पहला कि अंग्रेजीरूपी (विषैली) वातावरण ने हमारी भाषाओं को कुव्यवस्थित बना दिया है। हमारी अवस्था व व्यवस्था ऐसी हो गई है कि जब हम मलयालम से हिंदी में अनुवाद करते हैं तो पहले हम मलयालम से अंग्रेजी में अनुवाद करते हैं और फिर अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद होता है और इस प्रकार की व्यवस्था ने हमारी भाषाओं को मैला कर दिया है। 

हमारे पास स्थानीय स्तर पर भाषाई तंत्र मौजूद हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यही व्यवस्था गौण हो जाती है और अंग्रेजीरूपी अंतरण ने चहुँओर शाब्दिक त्रुटियों का अंबार लगा दिया है। दूसरा तथ्य यह जोड़ूँगा कि अगर मैं, मैं हिंदी को बढ़ाना चाहता हूँ ताकि वह सभी जननियों का नेतृत्व कर सके तो इसमें एक भारतीय के तौर पर किसी को हर्ज नहीं होना चाहिए। 

मैं अपनी सभी भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हूँ और इसमें मैं तनिक भी कोताही बरतना नहीं चाहूँगा। अगर कोई मेरे इस प्रस्ताव से इत्तेफाक रखता है तो मेरे पास इसका एक विस्तार भी मौजूद है और यह विस्तार है- हिंदी को छोड़ किसी अन्य भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा व राजभाषा का दर्जा दिया जाए और इसका आधिकारिक प्रयोग भारतीय राज्यों में मान्य हो और इसके साथ ही मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि अगर जनता चाहे तो वे मनचाही भाषा का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं और इन सबके लिए किसी बेड़ी की जरूरत नहीं है। 

मैं खुद तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़, राजस्थानी, गुजराती आदि भाषाएं सीखने को इच्छुक हूँ लेकिन समय व प्रतिबद्धता की कमी ने मुझे रोका हुआ है लेकिन मैं अगले दो-तीन सालों में सीख जाऊँगा और कम-से-कम लिख तो सकूँगा।

हमें अपनी सभी भाषाओं के सभी योगदानों का भाषांतरण करना होगा, जिससे हमारी भाषायें आंतरिक रूप से खुबसूरत हो सके और यही तो हमारे यहाँ की सही मायने में खूबसूरती है और इसके साथ ही एक कहावत- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर भाषा यहाँ चरितार्थ होती है। 

हम इस तरह अपनी भाषाओं में बहुमूल्य शब्दरूपी संपदा जोड़ सकेंगे और इससे हमारी भाषायें समृद्ध ही होंगी। हम कब तक अपनी भाषाओं के संवर्धन के नाम पर उनका उत्पीड़न करते रहेंगे। हमें हिंदी के प्रेमचंद चाहिए, बंगला के रवींद्रनाथ टैगोर चाहिए, हमें रामानुजन चाहिए। हमें नेताओं की जरूरत नहीं है, क्या हम इन नेताओं के भरोसे हमारी भाषाओं का विकास चाहते हैं?

हमारे पूर्वज कह गए हैं कि जिस देश की भाषा जितनी समृद्ध होती है, उस देश के लोग उतने ही समृद्ध होते हैं और इस वैश्वीकरण के दौर में हम अंग्रेजी के प्रभाव को पूरी तरह नकार नहीं सकते हैं लेकिन इसके प्रभाव को सीमित तो कर सकते हैं। मैं यहाँ विरोध पर विरोध के गुंजाइश के कारण इसके तथ्यात्मक कुप्रभाव पर गौर नहीं करूँगा लेकिन आपको यह समझना ही होगा कि आज के वैश्वीकृत दुनिया में भाषा एक वस्तु के समान हो गई है।

हमें यह भी समझना और समझाना होगा कि हमारी भाषायें केवल कला व साहित्य की भाषायें नहीं हैं, ये विज्ञान, प्रबंधन, ऋणकणिकी, स्वचालन आदि की भाषायें हो सकती हैं। 

जब तकनीक भाषा समर्थित नहीं है, बल्कि वह तो मस्तिष्क आधारित है, फिर क्यों तकनीक को किसी भाषाविशेष की जागीर बनने दिया जा रहा है। 

मैं यह जोड़ता हूँ कि इस गोरखधंधे में कुछ सफेदपोश लोग अपनी कमाई बढ़ाने के जोश में अपना व हमारा ही अहित कर रहे हैं। जब हम अपनी भाषाओं में पढ़कर समृद्ध व समर्थ बन सकते हैं तो क्यों हमें किसी विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ने पर विवश किया जा रहा है?

मैं इस आलेख के अंत में यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि अंग्रेजी सदैव हमारे देश की एक विदेशी भाषा ही रहेगी, भले ही कुछ लोग इसे अपनाने पर तुले हुए हो और मैं अपनी गलती स्वीकारते हुए कहता हूँ कि इसमें हम हिंदीभाषियों का ही सर्वाधिक दोष है लेकिन शुरुआत कहीं से तो होना ही चाहिए और मैं इसका द्योतक बनना तो चाहूँगा लेकिन इसके साथ ही अपार जनसमर्थन की भी अपेक्षा है। 

हमें मानना होगा कि हमारी चेतना हमारी भाषाओं के माध्यम से ही प्रवाहित हो सकती है। हमारी भावनायें हमारे भाषाओं के शब्दों से पुष्प-पल्लवित होते हैं। हम चाहे कितने भी जबान बोल लें, लेकिन खत्म अगर हमारी भाषाओं के शब्दों से होता है तो मजा दोगुना हो जाता है।

विशेष: यह आलेख हिंदी के प्रेमचंद (पूर्व) का अद्यतित प्रारूप है।
यह पृष्ठ अंतिम बार 10 मई 2017 (1751 भामास) को अद्यतित हुयी थी।

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